केदारनाथ आपदा की छठी बरसी पर विशेषः हमने नहीं सीखा सबक

केदारनाथ में यात्रियों की बढ़ी संख्या तीर्थाटन और स्थानीय आर्थिकी के लिहाज से निश्चित रूप से अच्छा संकेत है, लेकिन इस गंभीर सवाल से मुंह नहीं मोड़ा जा सकता कि 2013 की आपदा से क्या वास्तव में हम सबक ले पाये हैं। केदारनाथ त्रासदी के बाद सरकार ने दावा किया था कि केदारनाथ में यात्रियों की संख्या नियंत्रित की जाएगी, लेकिन वो दावा कहीं आपदा के मलबे के नीचे दबकर दम तोड गया है। सरकारी आंकड़ों के हिसाब से बात करें तो आज उत्तराखंड में आपदा की दृष्टि से संवेदनशील और अति संवेदनशील गांवों की संख्या 400 पहुंच गई है। ये गांव वर्षों से अपने विस्थापन व पुनर्वास की बाट जोह रहे हैं।

Update: 2019-06-16 10:43 GMT

आज केदारनाथ आपदा की छठी बरसी है। जिन्दगी पुराने ढर्रे पर लौट आयी है और यहां श्रद्धालुओं का रेला उमड़ रहा है। सोलह जून 2013 की केदारनाथ आपदा बेहद भीषण थी, जिसमें पांच हजार से अधिक लोग मारे गए या लापता हो गये थे। 4,200 से ज्यादा गांवों का संपर्क टूट गया था, इनमें 991 स्थानीय लोग अलग-अलग जगह पर मारे गए। 11,091 से ज्यादा मवेशी बाढ़ में बह गये थे या मलबे में दबकर मर गये थे। ग्रामीणों की 1,309 हेक्टेयर भूमि बाढ़ में बह गई थी। 2,141 भवनों का नामों-निशान मिट गया था। यात्रा मार्ग में फंसे 90 हजार यात्रियों को सेना ने और 30 हजार लोगों को पुलिस ने बाहर निकाला था। मंदाकिनी नदी के उफनती लहरों ने रामबाड़ा का अस्तित्व ही खत्म कर दिया था। इसके बाद 2014 से यात्रा का रास्ता बदल दिया गया था। आज यह अनुमान लगाना कठिन हो जाता है कि मंदाकिनी की धारा आज जहां बह रही है, वहां कभी एक हंसती-खेलती बस्ती थी।




 


केदारनाथ आपदा से पूर्व ज्ञात इतिहास में वर्ष 1803 में गढ़वाल में आए भूकंप का उल्लेख मिलता है। गढ़वाल अर्थक्वेक के नाम से जाने जाने वाले इस भूकंप ने पूरे उत्तर भारत को हिला दिया था। इसका लाभ उठाकर गोरखाओं ने यहां आक्रमण किया था और वर्ष 1804 में गढ़वाल क्षेत्र गोरखाओं के कब्जे में आ गया था।

उत्तरांचल के इतिहास में वर्ष 1868 में बिरही की बाढ़, 1880 में नैनीताल के पास भू-स्खलन, 1893 में बिरही में बनी झील, 1951 में सतपुली में नयार नदी की बाढ़, 1979 में रुद्रप्रयाग के कौंथा में बादल फटने की घटनाएं शामिल हैं। वर्ष 1991 में उत्तरकाशी में भूकंप, 1998 में रूद्रप्रयाग व मालपा में भू-स्खलन, 1999 में चमोली व रूद्रप्रयाग में भूकंप, 2010 में बागेश्वर के सुमगढ़ में भू-स्खलन, 2012 में उत्तरकाशी व रूद्रप्रयाग में बादल फटने व भू-स्खलन जैसी ये कुछ ऐसी घटनाएं हैं, जिनमें अब तक हजारों लोगों की जानें चली गई हैं।

उत्तराखंड में बारिश के बाद अचानक आए सैलाब में केदारनाथ मंदिर को छोड़कर सबकुछ तबाह और जमींदोज हो गया था और मंदिर के आसपास कुछ नहीं बचा था। चट्टानों की बारिश के बीच केदारनाथ मंदिर और भीतर के शिवलिंग सुरक्षित बचने को शिव भक्त इसे भगवान भोलेनाथ का चमत्कार बता रहे हैं तो जानकार हजारों साल पुराने इस मंदिर की मजबूत बनावट को इसके सुरक्षित रहने का आधार बता रहे हैं। हालाकि केदारनाथ धाम का पुनर्निर्माण नरेंद्र मोदी की प्राथमिकताओं में शुमार है और पीएमओ समय-समय पर पुनर्निर्माण कार्यों की प्रगति पर रिपोर्ट भी लेता है, लेकिन इस त्रासदी के छह साल बाद भी अभी तक किसी ने सबक नहीं लिया है और यात्रियों की भीड़ को रेगुलेट करने की दिशा में अब तक कोई ठोस पहल नहीं की गयी है। ज्यादातर यात्री बगैर पंजीकरण के सीधे केदारनाथ पहुंच रहे हैं।



केदारनाथ में यात्रियों की बढ़ी संख्या तीर्थाटन और स्थानीय आर्थिकी के लिहाज से निश्चित रूप से अच्छा संकेत है, लेकिन इस गंभीर सवाल से मुंह नहीं मोड़ा जा सकता कि 2013 की आपदा से क्या वास्तव में हम सबक ले पाये हैं। केदारनाथ त्रासदी के बाद सरकार ने दावा किया था कि केदारनाथ में यात्रियों की संख्या नियंत्रित की जाएगी, लेकिन वो दावा कहीं आपदा के मलबे के नीचे दबकर दम तोड गया है। सरकारी आंकड़ों के हिसाब से बात करें तो आज उत्तराखंड में आपदा की दृष्टि से संवेदनशील और अति संवेदनशील गांवों की संख्या 400 पहुंच गई है। ये गांव वर्षों से अपने विस्थापन व पुनर्वास की बाट जोह रहे हैं।



यह सही है कि प्राकृतिक आपदाएं रोकी नहीं जा सकती हैं, मगर ठोस प्रबंधन व तकनीकी प्रयोगों से आपदा न्यूनीकरण के प्रयास किए जा सकते हैं। यदि आपदा प्रबंधन तंत्र मजबूत और प्रभावी होता और समय पर राहत और बचाव अभियान चलता तो केदारनाथ आपदा में कई लोगों की जान बचाई जा सकती थी।

यह बेहद दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति है कि आपदा आने पर सरकारी मशीनरी का पूरा ध्यान निर्माण या पुनर्निर्माण कार्यों को संपन्न करने अथवा इसके लिए केंद्रीय सहायता हासिल करने में रहता है मगर इसके बाद पीड़ितों को उनके हाल पर छोड़ दिया जाता है। पहाड़ में प्रतिवर्ष ऐसे लोगों की संख्या बढ़ती जा रही है। इन ग्रामीणों से निरीह प्राणी शायद ही दुनिया में कोई और होगा, जो अपने घर-बार, खेती-बाड़ी व पशुओं को छोड़कर जाए तो कहां जाए ? एक तरफ काल का भय है तो दूसरी तरफ जीवन यापन की मजबूरी।

22 हजार फीट ऊंचा केदारनाथ मंदिर तीन तरफ से ऊंचे पहाड़ों से घिरा है। करीब 21,600 हजार फीट ऊंचा खर्चकुंड और 22,700 हजार फीट ऊंचा भरतकुंड न सिर्फ तीन पहाड़, बल्कि पांच नदियों का संगम भी है। यहां मंदाकिनी, मधुगंगा, क्षीरगंगा, सरस्वती और स्वर्णद्वरी. वैसे इसमें से कई नदियों को काल्पनिक माना जाता है। केदारनाथ मंदिर नागर स्थापत्य कला से मिलती-जुलती कत्युरी स्पायर शैली से बना है। मंदिर 85 फीट ऊंचा, 187 फीट लंबा और 80 फीट चौड़ा है,. इसकी दीवारें 12 फीट मोटी हैं। ये मंदिर दक्षिण दिशा की ओर खुलता है जो ज्यादातर मंदिरों से अलग है, क्योंकि ज्यादातर मंदिरों का मुख पूर्व की ओर होता है। वैसे तो केदारनाथ मंदिर उम्र को लेकर कोई दस्तावेजी सबूत नहीं मिलते हैं, मगर लगभग 1000 सालों से भी अधिक समय से केदारनाथ एक बेहद अहम तीर्थस्थल है। इस बेहद मजबूत मंदिर को किसने बनाया था, इस बारे मे विद्वान एकमत नहीं है और इसकी कई कहानियां प्रचलित हैं। कुछ विद्वान कहते हैं कि 1076 से 1099 विक्रमसंवत के बीच राजा भोज ने ये मंदिर बनवाया था, तो कुछ आठवीं शताब्दी में इस मंदिर को आदिशंकराचार्य द्वारा स्थापित करना बताते हैं। एक किवदंती के अनुसार द्वापर युग में पांडवों ने मौजूदा केदारनाथ मंदिर के ठीक पीछे एक मंदिर बनवाया था, लेकिन वो वक्त के थपेड़े सह न सका और केदारनाथ मंदिर डटा हुआ है। हर साल नवंबर से लेकर मार्च तक ये मंदिर बर्फ से ढक जाता है, बंद रहता है। 

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