जनहितकारी व्यवस्था

प्रत्येक मनुष्य अद्वितीय है। उस जैसा दूसरा मनुष्य असंभव है। मनुष्य एक सीमा तक ही समान हो सकते हैं। सबके लिए अवसरों की समानता जरूरी है।

Update: 2020-12-06 04:00 GMT

लखनऊ। सभी मनुष्य जनहितकारी राजव्यवस्था और समाज व्यवस्था में रहना चाहते हैं। ऋग्वेद (9.111.10 व 11) में सोम देवता से प्रार्थना है कि जहाँ जीवन की सारी आवश्यकताएं पूरी होती हों, तृप्तिदायक अन्न हो, जहाँ आनन्द, मोद, मुद व प्रमोद हैं, जहाँ विवस्वान का पुत्र राजा है, जहाँ विशाल नदियाँ बहती हैं। आप हमें वहाँ स्थान दें।'' यहाँ आनन्द देने वाली समाज व्यवस्था और लोककल्याण प्रतिबद्ध राजा या राजव्यवस्था की अभिलाषा है। इस प्रार्थना में काल्पनिक स्वर्ग नहीं है। (22.22) में स्तुति है, ''हमारे राष्ट्र में राजन्य शूरवीर हो, विद्वान सम्पूर्णता के ज्ञाता हो, गायें दूध देती हो, भारवाहक बैल स्वस्थ हों, तेज गति वाले घोड़े हों। माताएं संरक्षक हों। तेजस्वी युवा हों। मेघ मनोनुकूल वर्षा करें। राष्ट्र में हर तरह की समृद्धि हो।'' इस कामना में दक्षिण पंथ वामपंथ का पचड़ा नहीं है।

प्रत्येक मनुष्य अद्वितीय है। उस जैसा दूसरा मनुष्य असंभव है। मनुष्य एक सीमा तक ही समान हो सकते हैं। सबके लिए अवसरों की समानता जरूरी है। भारतीय संस्कृति में समता का विचार पुराना है। इस चिन्तन में प्रत्येक व्यक्ति की गरिमा है। श्रम की महत्ता है। प्रत्येक व्यक्ति को उसके श्रम फल का पुरस्कार मिलने की प्रतिभूति भी है। भारतीय दर्शन में व्यक्ति और व्यक्ति के बीच कोई भेद नहीं है। जातिवाद का निषेध है। ऋग्वेद के समाज की गण व्यवस्था में मरूदगणों का उल्लेख है। वह सब समान बताए गये हैं। गांधी जी के ट्रस्टीशिप सिद्धान्त के अनुसार समाज और देश ट्रस्ट या न्यास है। हम सब इसी ट्रस्ट के सदस्य या न्यासी हैं। हमको अपनी जीविका के लिए ही अपना हिस्सा लेना चाहिए। बेशक यह एक आदर्श स्थिति है लेकिन कोई व्यक्ति आजीविका के साधनों से ही संतुष्ट नहीं होता। सैद्धान्तिक दृष्टि से यह विचार समाजवाद जैसा है। अन्त्योदय के विचार में आर्थिक और सामाजिक दृष्टि से समाज के अन्तिम व्यक्ति का भी उत्थान मुख्य उद्देश्य है। पं. दीनदयाल उपाध्याय ने यही विचार रखा था। गांधी जी ने लिखा था कि हम सब कोई भी काम करते समय विचार करें कि हमारे काम से क्या गरीब आदमी का भला होने वाला है? यदि हाॅ! तो वह काम अच्छा है।

वैदिककाल का राजा सर्वशक्तिमान परम स्वतंत्र नहीं है। वह सभा समिति के प्रति उत्तरदायी है। राजा की नियुक्ति होती थी। ऋग्वेद में राजा से कहते हैं कि, ''आप को अधिपति नियुक्ति किया गया है। आप के माध्यम सेे राष्ट्र का यश कम न हो। प्रजाएं आपकी अभिलाषा करें।'' वाल्मीकि रामायण में भी राजा के गुणों की सूची है। यजुर्वेद में राजा के कार्य हैं, ''हम सब कृषि के लिए, लोकमंगल और धन समृद्धि के लिए तथा सम्पूर्ण पोषण के लिए आपको स्वीकार करते हैं।'' उत्तर वैदिककाल के ग्रन्थों के अनुसार राजा कृषि, व्यापार और देश की भूमि की सुरक्षा की शपथ लेकर ही राज्य सिंहासन पर बैठता था। शपथ लेता था कि, ''यदि मैं अपने दायित्व का निर्वहन न करूँ तो मुझे मेरे सत्कर्मों का फल न मिले।'' प्राचीन भारत में राजा या राजव्यवस्था का उद्देश्य जनहित संवर्द्धन ही था। समाजवाद, साम्यवाद, पंूजीवाद सहित सभी वाद एकपक्षीय हैं। इसीलिए वह वाद कहलाते हैं। भारतीय चिंतन एकपक्षीय विचार नहीं है। यहाँ सभी तत्वों पर समग्रता में विचार किया गया है। वामपंथ सारी दुनिया में असफल सिद्ध हो गया है। वामपंथ स्वयं को अंधविश्वास से मुक्त रहने की घोषणा करता है। भारतीय माक्र्सवादी या वामपंथी हिन्दू विश्वासों पर हमला करते हैं, लेकिन इस्लामी विश्वासों पर कोई टिप्पणी नहीं करते। वामपंथ यदि अनीश्वरवादी विचार है तो उसे इस्लाम ईसाइयत सहित सभी विश्वासों को खारिज करना चाहिए। इसी आचरण में उनके वैज्ञानिक भौतिकवाद की कसौटी है।

दक्षिण पंथ कोई विचार नहीं है। यह कल्पित धारणा है और वामपंथ को कुलीन मानने वाले लोगों द्वारा संस्कृति प्रेमियों को दी गयी गाली जैसा है। इस अर्थ में दक्षिण पंथ में पंूजीवाद के प्रति निष्ठा, अंधविश्वासों को बढ़ावा और पंथ मजहब मत की प्रतिष्ठा दक्षिण पंथ है, लेकिन इस परिभाषा वाला दक्षिण पंथ इस्लामी देशों के अलावा अन्यत्र कहीं नहीं दिखाई पड़ता, लेकिन आश्चर्य है कि कथित प्रगतिशील वामपंथी इस्लामी राज व्यवस्थाओं पर कभी कोई टिप्पणी नहीं करते हैं।

कथित वामपंथी विचारों से पंडित नेहरू भी क्षुब्ध थे। नेहरू ने (सेलेक्टेड वक्र्स, वायु-8 पृष्ठ-869-7) में लिखा है, ''मेरे पिता और गाँधी जी का मेरी जिन्दगी में खास प्रभाव पड़ा है।'' आगे लिखा है कालमाक्र्स और लेनिन को पढ़ने से मुझ पर जबरदस्त असर हुआ''। आगे लिखते हैं ''मैं सचमुच नहीं जानता कि मैं क्या हँू। यकीनन मैं एक समाजवादी हँू क्योंकि मैं समाजवादी सिद्धांत और चीजों को समझने के उसके रवैये पर यकीन करता हँू। मैं कोई कम्युनिस्ट नहीं हँू। इसकी खास वजह यह है कि साम्यवाद को एक परम पवित्र सिद्धांत मानने का जो साम्यवादी रवैया है, उसके खिलाफ हँू। मुझे यह पसंद नहीं है कि कोई मुझे यह बताये कि मुझे क्या सोचना और करना चाहिए। मोटे तौर पर मेरा रवैया माक्र्सवादी रहा है, लेकिन टेक्निकल मायनों में नहीं। मिसाल के लिए सरप्लस वैलूज के बारे में उनकी जो थ्योरी है, उसके बारे में मेरा दिमाग झन्ना उठता है। मैं कोई बड़ा अर्थशास्त्री नहीं हँू कि साम्यवादी आर्थिक सिद्धांत के बारीक पहलुओं के बारे में कोई सटीक राय दे सकूं। मैं सोचता हँू कि साम्यवादी तरीके में बहुत कुछ खून खराबे की बातें हैं और इस वजह से इसके अच्छे नतीजे नहीं होते हैं, जैसा कि रूस में पिछले कुछ सालों में हुआ है। नतीजों को साधनों से अलग नहीं किया जा सकता है।''

प्राचीन भारत में राजनीति को दण्डनीति, अर्थशास्त्र, राजधर्म, राजशास्त्र आदि नामों से जाना जाता था। नीतिशास्त्र सर्वाधिक प्रचलित नाम था। नीति का अर्थ विशेष प्रकार का कल्याणकारी मार्गदर्शन होता है। राजा में सबको साथ लेकर चलने का नेतृत्व गुण जरूरी है। सक्षम नेता आमजन को भी गतिशील बनाता है। गतिशील समाज प्रगतिशील होता है। वह दक्षिण और वाम के पचड़े से मुक्त होता है। महाभारत शांतिपर्व में राजा के कर्तव्यों में निराश्रित लोगों के पालन पोषण का प्रबंध भी बताया गया है। शुक्रनीति में राजा प्रजा सेवक है। लोकतंत्र यूरोपीय परंपरा की देन नहीं है। भारत में राजधर्म और नीतिशास्त्र का विकास ईसा पूर्व 6-7 हजार वर्ष पहले ही प्रारम्भ हो गया था। मौर्यकाल और कौटिल्य कार्यकाल ईसा पूर्व लगभग तीन सौ से चार सौ वर्ष माना जाता है। कौटिल्य के अर्थशास्त्र में वृहस्पति, शुक्राचार्य, भारद्वाज, पाराशर, चारायण आदि पूर्ववर्ती विचारकों के उल्लेख हैं। आदर्श राजव्यवस्था का विकास कौटिल्य के बहुत पहले से ही हो रहा था। शुक्रनीति में राजा को निर्देश है कि बहुमत के अनुसार कार्य करें- कुर्याद् बहुसंमतम्। शुक्रनीति में योग्यता को ही नियुक्ति का आधार माना गया है, ''कार्मिकों की नियुक्ति व पदोन्नति योग्यता और कर्म कुशलता के आधार पर करें, जातियाँ श्रेष्ठता की मापदण्ड नहीं हैं- न जात्या, न कुलेनैव श्रेष्ठत्वं प्रतिपद्यते। इस निर्देश को वामपंथ या दक्षिण पंथ के खेमे में कैसे विभाजित कर सकते हैं। (हिफी)

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