जयंती विशेष- रण में डटकर लडे थे शिरोमणि महाराणा प्रताप

आज स्वाभिमान के अमर स्वर, राष्ट्र नायक, वीर शिरोमणि महाराणा प्रताप की 480 वी जन्म जयंती है। महाराणा प्रताप का जन्म 9 मई 1540 को शुक्ल की तृतीय तिथि को राजस्थान के मेवाड़ में हुआ।

Update: 2020-05-09 13:10 GMT

सहारनपुर। आज स्वाभिमान के अमर स्वर, राष्ट्र नायक, वीर शिरोमणि महाराणा प्रताप की 480 वी जन्म जयंती है। महाराणा प्रताप का जन्म 9 मई 1540 को  ज्येष्ठ शुक्ल की तृतीय तिथि को राजस्थान के मेवाड़ में हुआ। उनका पूरा नाम महाराणा प्रताप सिंह सिसौदिया था।  उनके पिता राणा उदय सिंह व माता जयवंता बाई थे। अपनी माता रानी जयवंता बाई को महाराणा प्रताप अपना पहला गुरु मानते थे। उनकी जीवनसाथी का नाम अजबदे पुनवार थी। वह उस समय में अकेले ऐसे वीर योद्धा और महान राजा थे, जिनकी वीरता और साहस से पूर्ण भारत भूमि गौरवान्वित है,जिन्हें उनके शत्रु भी सलाम करते थे। महाराणा प्रताप की वीरता की स्वयं अकबर ने भी प्रशंसा की और उन्हें महान योद्धा बताया था। उनकी वीरता की अमर गाथा सदा देश के लोगों के दिलों में जिंदा रहेगी। महाराणा प्रताप की तरह ही वीर था, उनका सबसे प्रिय घोड़ा चेतक जिसकी रफ्तार हवाओ से भी तेज थी। जब-जब महाराणा प्रताप की वीरगाथा का जिक्र होगा तब-तब चेतक का उसमें महान स्थान होगा।

राजा होने के बावजूद महाराणा प्रताप मानवता के अनुयायी थे और उनका मानना था कि जो इंसान अपने और अपने परिवार,राज पाठ के अलावा भी सबके विषय में सोचे, वही सच्चा राजा और इमानदार नागरिक कहलाने के लायक है। महाराणा प्रताप बचपन से ही एक कुशल योद्धा थे।

महाराणा प्रताप ने स्वाधीन भारत, मनुष्य के गौरव और आत्मसम्मान के लिए राज पाठ को त्याग कर वन में अनेक वर्ष बिताये, परंतु आत्मसम्मान को कभी न झुकने दिया और संदेश दिया कि जो योद्धा बुरे वक्त में डर जाते हैं उन्हें ना सफलता मिलती है और ना इतिहास में अतुल्य स्थान।

वीर शिरोमणि महाराणा प्रताप ने मुगलों से वैसे तो कई लड़ाइयां लड़ी लेकिन उनमें सबसे अधिक ऐतिहासिक था 1576 का हल्दीघाटी का युद्ध, जिसमें उनका सामना अकबर की सेना से हुआ। इस युद्ध में कई अन्य राजाओं ने घुटने टेके, परंतु महाराणा प्रताप व राणा उदय सिंह ने मुगलों से यह लड़ाई जमकर लड़ी व अंत तक हार नहीं मानी। महाराणा प्रताप की अमर कथा पर यह सिद्धांत बिल्कुल सटीक बैठता है कि "हार आपसे आपका धन छीन सकती है, लेकिन आपका गौरव नहीं, अगर इरादा नेक हो तो इंसान कभी हार नहीं सकता है"।

इस युद्ध में महाराणा प्रताप को अफगानी राजाओं का समर्थन प्राप्त था और मित्रता के लिए हाकिम खान सूरी आखिरी दम तक प्रताप की तरफ से यह युद्ध लड़े। इस युद्ध में महाराणा प्रताप को कुछ करीबियों से ही विश्वासघात मिला। इसके बाद महाराणा प्रताप अपनी प्रजा की भलाई के लिए चित्तौड़ को छोड़कर बाहर से ही अपनी प्रजा को सुरक्षा प्रदान करते रहे परंतु उन्होंने अकबर की अधीनस्थथा स्वीकार नहीं की। यही थी महान योद्धा की आखिरी दम तक लड़ने की पहचान। 1582 में उन्होंने दिवेर का युद्ध लड़ा और उन क्षेत्रों को मुक्त कराया जो अकबर के अधीनस्थ हो गए थे। उन्होंने अपने मेवाड को भी मुक्त कराया।1597 में 57 वर्ष की उम्र में चावड में उन्हें वीरगति प्राप्त हुई। राणा अमर सिंह और राणा भगवानदास उनके दो सुपुत्र थे।

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