सीएम योगी का समाज की सोच बदलने का सार्थक प्रयास

लखनऊ। सामाजिक सेवा में उतरे संन्यासी योगी आदित्यनाथ ने पिछले दिनों दलित युवक की बारात में बैण्डबाजे की रीति सम्पन्न कराकर समाज की सोच बदलने का सार्थक प्रयास किया है। इसकी सिर्फ तारीफ ही नहीं करनी चाहिए बल्कि इस संदेश को दलितों और सवर्णों- दोनों के बीच पहुंचाना भी पड़ेगा। यह असामान्य सोच उत्तर प्रदेश ही नहीं, कई अन्य राज्यों मंे भी है। दुनिया के किसी भी देश मे इसे सामान्य नहीं माना जा सकता और 21 वीं सदी के भारत में लोकतंत्र के इतने सालों का अनुभव तो कतई इजाजत नहीं देता कि सवर्ण इस बीमारू सोच से ग्रसित रहें और दलित अवसाद की स्थिति में ही पड़े रहें। कहीं-कहीं सवर्ण यह मानने को तैयार क्यों नहीं हैं कि दलित भी इंसान हैं और उनको भी शादी-ब्याह में उल्लास प्रदर्शन का अधिकार है। इसी सोच को बदलने के लिए यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को पुलिस फोर्स का सहारा लेना पड़ा है लेकिन यह कार्य बिना किसी दबाव के होना चाहिए।
उत्तर प्रदेश में योगी आदित्यनाथ की सरकार सबको सुरक्षा सबको न्याय देती है। कई बार सवाल उठते हैं कि क्या ये केवल दावे हैं या फिर इसमें कुछ सच्चाई भी है? संभल से एक मामला सामने आया है जिसमें योगी सरकार के दावे की पुष्टि होती दिखी है। मामला संभल का है जहां उत्तर प्रदेश की पुलिस ने एक दलित की बेटी की बारात को सुरक्षा दी और शांतिपूर्वक शादी संपन्न करवाई गई। संगीनों के साये में हुई दलित की बेटी की इस शादी को 60 पुलिसकर्मियों ने सकुशल संपन्न करवाया। इस दौरान थाना प्रभारी ने शादी में 11 हजार रुपए का दान भी दिया। जनपद संभल के थाना जुनावई के गांव लोहामई में दलित समाज के एक शख्स को अपनी बेटी की शादी के लिए पुलिस से गुहार लगानी पड़ी। दरअसल, वाल्मीकि समाज के राजू चौहान ने बीते दिनों एसपी संभल से बेटी की शादी में बारात चढ़त के दौरान पुलिस सुरक्षा की मांग की थी। गांव में दलित समाज के लोगों को सम्मानपूर्वक बैंड बाजे के साथ बारात निकालने नहीं दिया जाता है। इसी के चलते राजू ने एसपी को शिकायती पत्र देकर पुलिस सुरक्षा की मांग की थी, जिस पर संभल पुलिस अधीक्षक चक्रेश मिश्रा ने शख्स को भरोसा दिलाया कि उसकी बेटी की शादी न सिर्फ धूमधाम से होगी। बल्कि बारात चढ़त के दौरान पूरे समय पुलिस फोर्स तैनात रहेगी। दलित की बेटी की शादी में किसी प्रकार का व्यवधान उत्पन्न न हो इसके लिए 60 पुलिस कर्मियों की ड्यूटी लगाई गई। वहीं, दुल्हन बनी रवीना की मां उर्मिला वाल्मीकि ने बताया कि उनके गांव में दलित समाज के लोगों की शादी में बैंड बाजा नहीं बजने दिया जाता था।
इस तरह की सोच सिर्फ यूपी में ही नहीं है। राजस्थान के तत्कालीन गृह मंत्री गुलाबचंद कटारिया ने विधानसभा में एक चिंताजनक जानकारी दी थी। उन्होंने बताया कि प्रदेश में पिछले तीन साल में दलित दूल्हों को घोड़ी पर चढ़ने से रोकने की 38 घटनाओं में मुकदमे दर्ज हुए। ये घटनाएं रुक नहीं रही हैं। इसी प्रकार मध्य प्रदेश के रतलाम से आई एक तस्वीर ने भी लोगों को चौंका दिया था। वहां एक दलित दूल्हे को हेलमेट पहनकर घोड़ी पर चढ़ना पड़ा, क्योंकि गांव के सवर्ण लोग नहीं चाहते थे कि वह घोड़ी पर चढ़े। पहले तो उसकी घोड़ी छीन ली गई और फिर पत्थर फेंके गए। उनके फेंके पत्थरों से दूल्हे को बचाने के लिए पुलिस ने हेलमेट का बंदोबस्त किया, तब जाकर बारात निकली। उत्तर प्रदेश के कासगंज में एक समय पुलिस ने आधिकारिक तौर पर कह दिया था कि दलित दूल्हे का घोड़ी पर बैठना शांति के लिए खतरा है। दादरी जिले के संजरवास गांव में जब एक दलित दूल्हे की बारात आई तो राजपूतों ने हमला कर दिया। इस घटना में दूल्हा संजय समेत कई बाराती और लड़की वाले जख्मी हो गए। हमला करने वालों का कहना था कि दलित दूल्हा घोड़ी पर सवार होकर नहीं आ सकता, क्योंकि उन्हें इसका अधिकार नहीं है। इसी प्रकार हरियाणा के कुरुक्षेत्र में दलित समाज की एक बारात पर सवर्णों ने यह कहकर हमला कर दिया कि दलित दूल्हा घोड़े की बग्गी पर सवार होकर उनके मंदिर में नहीं आ सकता, उसे जाना है तो रविदास मंदिर में जाए। पुलिस की सुरक्षा के बावजूद पथराव की घटना हुई थी।
शादियों के मौसम में लगभग हर हफ्ते देश के किसी न किसी हिस्से से ऐसी किसी घटना की खबर आ ही जाती है। इन घटनाओं में जो एक बात हर जगह समान होती है, वह यह कि दूल्हा दलित होता है, वह घोड़ी पर सवार होता है और हमलावर सवर्ण समुदाय के लोग होते हैं। दीअसल, एक, दलित समुदाय के लोग पहले घुड़चढ़ी की रस्म नहीं करते थे। न सिर्फ सवर्ण बल्कि दलित भी मानते थे कि घुड़चढ़ी सवर्णों की रस्म है लेकिन अब दलित इस भेद को नहीं मान रहे हैं। दलित दूल्हे भी घोड़ी पर सवार होने लगे हैं। यह अपने से ऊपर वाली जाति के जैसा बनने या दिखने की कोशिश है, इसे लोकतंत्र का भी असर कहा जा सकता है, जिसने दलितों में भी समानता का भाव और आत्मसम्मान पैदा कर दिया है। यह प्रक्रिया पहले पिछड़ी जातियों में हुई होगी, जो अब चलकर दलितों तक पहुंची है।
सवर्ण जातियां इसे सहजता से स्वीकार नहीं कर पा रही हैं। उनके हिसाब से दूल्हे का घोड़ी पर सवार होना एक सवर्ण विशेषाधिकार है और इसे कोई और नहीं ले सकता। वे इस बदलाव को रोकने की तमाम कोशिशें कर रहे हैं। हिंसा उनमें से एक तरीका है और इसके लिए वे गिरफ्तार होने और जेल जाने तक के लिए तैयार हैं। आधुनिकता और लोकतंत्र के बावजूद सवर्णों में यह चेतना नहीं आ रही है कि सभी नागरिक समान हैं। कई दशक पहले पिछड़ी जातियों के लोगों ने जब बिहार में जनेऊ पहनने का अभियान चलाया था, तो ऐसी ही हिंसक प्रतिक्रिया हुई थी और कई लोग मारे गए थे। दलितों के मंदिर घुसने की कोशिश अब भी कई जगहों पर हिंसक प्रतिक्रिया को जन्म देती है।
खासकर गांवों में समाज अभी भी स्थिर हैं और दलित कई जगहों पर आर्थिक रूप से सवर्णों पर निर्भर हैं इसलिए वे खुद भी ऐसा कुछ करने से बचते हैं, जिससे सवर्ण नाराज हों और उनके आर्थिक स्रोत बंद कर दिए जाएं। इन घटनाओं को अब तक दलित उत्पीड़न के तौर पर देखा गया है। अब जरूरत इस बात की भी है कि लोगों की सोच बदली जाए। (हिफी)