द्रौपदी मुर्मू के सामने कठिन दायित्व

द्रौपदी मुर्मू के सामने कठिन दायित्व

नई दिल्ली। भारत के 15वें राष्ट्रपति का दायित्व ओडिशा के आदिवासी बाहुल्य जिले मयूरभंज में जन्मी उस बालिका को 21 जुलाई को सौंपा गया है जिसने 7 गांवों की एकमात्र लड़कियों में कालेज जाने का गौरव पाया था। भारतीय लोकतंत्र की यह निश्चित रूप से बड़ी उपलब्धि है कि एक आदिवासी महिला देश की प्रथम नागरिक बनी है। राजनीति के परिपेक्ष्य में देखें तो केन्द्र में सत्तारूढ़ भाजपा और उसके सहयोगी दलों के पास इतने सांसद और विधायक थे कि विपक्षी दलों के राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार यशवंत सिन्हा का पराजित होना तय था। इसी के साथ यह सवाल भी लोगों के दिमाग में है कि भाजपा द्रोपदी मुर्मू को राष्ट्रपति बनाकर कौन-कौन से लक्ष्य हासिल करना चाहती है। चुनाव नतीजे आने के बाद जिस तरह से भाजपा ने आदिवासी बहुल गांवों में जश्न मनाया, उससे यह बात और स्पष्ट हो गयी लेकिन द्रौपदी मुर्मू ने सार्वजनिक जीवन में जिस तरह से राजनीति से परे हटकर फैसले लिये हैं, उससे यह भी अपेक्षा की जाती है कि द्रौपदी मुर्मू राष्ट्रपति के रूप में अपने कर्तव्य का निर्वाह बिना किसी दबाव के करेंगी। झारखंड के राज्यपाल के रूप में द्रौपदी मुर्मू ने भाजपा की ही रघुवर दास सरकार के अधिनियम में संशोधन को लौटा दिया था। इस प्रकार कई मौकों पर द्रौपदी मुर्मू की मुखरता देखने को मिली है। यह भी सच है कि आज वे राष्ट्रपति की कुर्सी पर भाजपा की मदद से ही बैठी हैं, इसलिए द्रौपदी मुर्मू को बहुत कठिन दायित्व का सामना करना पड़ेगा।

राष्ट्रपति का पद बहुत ही प्रतिष्ठा वाला और एक अहम संवैधानिक पद होता है। देश के संविधान के मुताबिक, लोकतंत्र के तीन मजबूत स्तंभ होते हैं- कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका। संघ की कार्यपालिका की शक्ति राष्ट्रपति में निहित है। वे केंद्रीय मंत्रिमंडल के जरिये अपनी इस शक्ति का इस्तेमाल कर सकते हैं। राष्ट्रपति देश की नौसेना, थल सेना और वायु सेना के सर्वोच्च सेनापति होते हैं। राष्ट्रपति लोकसभा में एंग्लो इंडियन समुदाय के दो व्यक्तियों को मनोनीत कर सकते हैं। राज्यसभा में कला, साहित्य, पत्रकारिता, विज्ञान, आदि में पर्याप्त अनुभव रखने वाले 12 सदस्यों को भी वे मनोनीत कर सकते हैं। दूसरे देशों के साथ कोई संधि या समझौता किया जा रहा है तो यहां राष्ट्रपति का हस्ताक्षर जरूरी होता है। जब संसद के दोनों सदनों में सत्र नहीं चल रहा होता, उस समय संविधान के अनुच्छेद 123 के मुताबिक, राष्ट्रपति नया अध्यादेश जारी कर सकते हैं। संसद सत्र के शुरू होने के 6 हफ्ते तक इसका प्रभाव रहता है। संविधान के अनुच्छेद 72 के अनुसार, राष्ट्रपति किसी भी व्यक्ति को क्षमा कर उसे पूर्ण दंड से बचा सकते हैं या फिर उसकी सजा कम करवा सकते हैं। हालांकि एक बार यदि उन्होंने क्षमा याचिका रद्द कर दी तो फिर दुबारा याचिका दायर नहीं की जा सकती। फांसी की सजा पाने वाले कई अपराधियों की क्षमा याचिका राष्ट्रपति तक पहुंचती है। हालांकि इस पर फैसला लेना उनका अधिकार है। देश में आपातकाल की घोषणा का अधिकार सिर्फ राष्ट्रपति के पास ही होता है। इसमें 3 तरह की इमरजेंसी शामिल होती हैं। पहला, युद्ध या सशस्त्र विद्रोह के दौरान, दूसरा राज्यों के संवैधानिक तंत्र के फेल होने पर और तीसरा वित्तीय आपातकाल। सन् 1962 में भारत चीन युद्ध, 1971 में भारत पाकिस्तान युद्ध और फिर 1975 में इंटरनल एग्रेशन के दौरान देश में इमरजेंसी लगाई गई थी। संसद के दोनों सदनों, लोकसभा और राज्यसभा में कोई बिल जब पेश किया जाता है तो वहां से पास होने के बाद राष्ट्रपति की स्वीकृति जरूरी होती है। इसके बिना कोई भी विधेयक कानून नहीं बन सकता। धन विधेयक हो, किसी नए राज्य का निर्माण, सीमांकन हो या भूमि अधिग्रहण के संबंध में कोई विधेयक, राष्ट्रपति की सिफारिश के बगैर संसद में प्रस्तुत नहीं किया जा सकता।

बेहद शांत स्वभाव की मुर्मू लोगों को उनके अधिकार दिलाने के लिए भी जानी जाती हैं। बचपन से लेकर राज्यपाल बनने तक के सफर में उन्होंने ऐसे कई फैसले लिये जो बताते हैं कि द्रौपदी मुर्मू एक रबर स्टाम्प नहीं साबित होंगी। उन्होंने शिक्षा के लिए अहम कदम उठाए, आदिवासियों के हितों की बात की और सरकार के फैसलों पर भी सवाल उठाए। द्रौपदी मुर्मू का जन्म 20 जून 1958 को ओडिशा के आदिवासी बाहुल्य जिले मयूरभंज के एक गांव में हुआ। इस जिले के 7 गांवों में मुर्मू इतिहास की ऐसी पहली लड़की रही हैं जो कॉलेज पहुंची। मुर्मू मई 2015 से लेकर जुलाई 2021 तक झारखंड की राज्यपाल रही हैं। नवंबर 2016 का दौर झारखंड में इतिहास में उथल-पुथल भरा रहा। रघुवर दास के नेतृत्व वाली भाजपा सरकार ने दो सदियों पुराने भूमि कानूनों- छोटानागपुर काश्तकारी (सीएनटी) और संथाल परगना काश्तकारी (एसपीटी) अधिनियमों में संशोधन पारित किया था। इस संशोधन के तहत जमीन की औद्योगिक उपयोग के लिए अनुमति देना आसान हो जाता। राज्यभर में आदिवासी समुदाय ने इस संशोधन का पुरजोर विरोध किया और प्रदर्शन किया। इसे राज्यपाल द्रौपदी मुर्मू के पास भेजा गया। द्रौपदी ने सरकार से सवाल किया कि इस संशोधन से आदिवासियों को कितना फायदा होगा। इस कानून पर विचार करने के बाद उन्होंने यह विधेयक सरकार को वापस कर दिया और मुहर नहीं लगाई। द्रौपदी मुर्मू भले ही आदिवासी क्षेत्र से ताल्लुक रखती हैं, लेकिन लीडरशिप और चीजों को तोलमोल कर उन पर विश्वास करने की खूबी उन्हें उनके पिता और दादा से मिली। उनके पिता और दादा दोनों ही ग्राम परिषद के मुखिया रहे हैं। इसी प्रकार 1 दिसंबर, 2018 को रांची की नेशनल यूनिवर्सिटी ऑफ स्टडी एंड रिसर्च में दीक्षांत समारोह था। द्रौपदी मुर्मू कार्यक्रम में बतौर कुलाधिपति मौजूद थीं। अपने भाषण के दौरान जब मुर्मू स्वतंत्रता आंदोलन में वकीलों की भूमिका के बारे में बात कर रही थीं, तब उन्होंने महात्मा गांधी, जवाहर लाल नेहरू और बीआर अंबेडकर की तारीफ की। उन्होंने संविधान निर्माण में इन नेताओं के योगदान की खुलकर प्रशंसा की। और भी कुछ मौकों पर द्रौपदी मुर्मू की मुखरता देखने को मिली है। वह अपनी ही पार्टी की सरकार की आलोचना करने से नहीं चूकीं। नवंबर 2018 में अंतरराष्ट्रीय वित्तीय सम्मेलन में उन्होंने कहा था कि भले ही झारखंड राज्य सरकार (तब बीजेपी) और केंद्र सरकार, आदिवासियों को बैंकिंग सेवाओं और अन्य योजनाओं के लाभ देने के लिए काम कर रहे हों, लेकिन एससी और एसटी की स्थिति आज भी इस दिशा में बेहद खराब बनी हुई है।

द्रौपदी मुर्मू को देश के सर्वोच्च पद पर बैठाकर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने जो दांव खेला है वो अहम है। द्रौपदी मुर्मू आदिवासी हैं, जमीन से जुड़ी हैं, उनका लंबा राजनीतिक अनुभव है और बिल्कुल बेदाग है।द्रौपदी ने 1997 में रायरंगपुर नगर पंचायत में पार्षद चुनाव जीतकर अपने राजनीतिक जीवन की शुरुआत की थी। उन्होंने भाजपा के अनुसूचित जनजाति मोर्चा के उपाध्यक्ष के रूप में काम किया है। इसके साथ ही वह भाजपा के आदिवासी मोर्चा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की सदस्य भी रह चुकी हैं। आजादी के बाद पहला मौका है जब कोई आदिवासी राष्ट्रपति के पद पर पहुंचा है इसीलिए बीजपी द्रौपदी मुर्मू के राष्ट्रपति बनने का जश्न देश के 100 से ज्यादा आदिवासी बहुल जिलों और 1 लाख 30 हजार गांवों में मनाएगी यानि अब बीजेपी आदिवासियों के बीच अपनी पैठ को और मजबूत करने की कोशिश करेगी।बात सिर्फ ओडिशा की नहीं है, देश के अलग-अलग राज्यों में 495 विधानसभा सीटें ऐसी हैं जो शेड्यूल ट्राइब्स के लिए रिजर्व हैं। इसी तरह लोकसभा की 47 सीटें अनुसूचित जनजातियों के लिए आरक्षित हैं। राज्यों की बात करें तो गुजरात की 27, राजस्थान की 25, महाराष्ट्र की भी 25, मध्यप्रदेश में 47, छत्तीसगढ़ में 29, झारखंड में 28 और ओडिशा की 33 सीटों पर आदिवासी समाज के वोटर्स हार जीत का फैसला करते हैं। इस वक्त गुजरात की आदिवासी बहुल 27 में से सिर्फ 9 सीट बीजेपी के पास हैं। गुजरात में इसी साल चुनाव होने हैं इसी तरह राजस्थान में 25 में से 8, छत्तीसगढ़ में 29 में से सिर्फ 2 और मध्यप्रदेश में शेड्यूल ट्राइब्स के लिए रिजर्व 47 सीटों में से सिर्फ 16 सीट बीजेपी के पास हैं यानी पिछले चुनाव में आदिवासियों के लिए आरक्षित सीटों में बीजेपी का प्रदर्शन उसकी उम्मीदों के मुताबिक नहीं रहा। अब बीजेपी को उम्मीद है कि द्रौपदी मुर्मू को राष्ट्रपति बनाने से आदिवासी समुदाय के लोगों में पार्टी को लेकर सही मैसेज जाएगा और चुनावों में इसका फायदा मिलेगा। (हिफी)

(अशोक त्रिपाठी-हिन्दुस्तान समाचार फीचर सेवा)

epmty
epmty
Top