बिहार में नये समीकरण के आसार

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पटना राजनीति में अगर सब कुछ जायज है तो बिहार में महागठबंधन धर्म को बहुत ईमानदारी से निभाने वाली कांग्रेस तारिक अनवर के माध्यम से सत्ता में लौटना चाहती है। इसे अनुचित भी नहीं कहा जा सकता। महागठबंधन के नेता और पूर्व उपमुख्यमंत्री तेजस्वी यादव के प्रति घटक दलों का विश्वास डगमगा गया है। भाजपा का साथ छोड़ कर महागठबंधन से जुड़ने को तैयार दलितों के नेता जीतन राम मांझी कांग्रेस की नेता सोनिया गांधी से मिलने दिल्ली पहुंच गये। कांग्रेस का कभी प्रमुख वोट बैंक ब्राह्मण, दलित और मुसलमान रहे हैं। बिहार में कांग्रेस को वही वोटबैंक मिल रहा है। लालू यादव की पार्टी राजद के साथ इसे गद्दारी भी नहीं कहा जा सकता क्योंकि महागठबंधन का लक्ष्य भाजपा को सत्ता से बाहर करना है और राजद के साथ अगर उसके साथी नहीं चलना चाहते तो किसी न किसी को तो आगे आना ही पड़ेगा। सोनिया गांधी इसीलिए आगे बढी हैं।

बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री जीतनराम मांझी दिल्ली के दो दिन के दौरे के बाद पटना लौटे तो उनके तेवर तल्ख ही दिख रहे थे। हालांकि जीतनराम मांझी ने खुद तो कुछ नहीं कहा, लेकिन उनकी पार्टी हिंदुस्तानी अवाम मोर्चा (हम) के प्रवक्ता की तरफ से जो कहा गया वह महागठबंधन के भीतर की हलचल को सामने रखता है। हम प्रवक्ता दानिश रिजवान ने महागठबंधन में कोऑर्डिनेशन कमेटी बनाने की मांग को लेकर तेजस्वी यादव के बयान पर तीखी प्रतिक्रिया दी है। उन्होंने कहा हमारी पार्टी की तरफ से जगतानंद सिंह से बात करने के लिए फतुहा के प्रखंड अध्यक्ष राजन राज को अधिकृत किया गया है। लिहाजा, जगतानंद सिंह राजन राज से बात कर लें।इससे पहले जीतन राम मांझी की श्रीमती सोनिया गांधी से मुलाकात हो चुकी थी और मांझी ने प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से यह संकेत भी दे दिया था कि बिहार में अगर महागठबंधन की बागडोर अब कांग्रेस संभाले तो बेहतर होगा। दरअसल, जिस दिन मांझी श्रीमती सोनिया गांधी से मिले, उसी दिन राजद के पांच विधान परिषद सदस्यों ने पार्टी से इस्तीफा देकर भाजपा का दामन थाम लिया था। इतना ही नहीं, पार्टी के वरिष्ठ नेता रघुवंश प्रसाद सिंह ने भी इस्तीफा देने की घोषणा कर दी थी। राजद के एक नेता, जो लालूप्रसाद के बहुत सनिकट रहे, के समर्थक राबड़ी देवी के आवास के बाहर इसलिए प्रदर्शन कर रहे थे ताकि उनके नेता को विधान परिषद में भेजा जा सके।

यही कुछ कारण थे कि कांग्रेस की ओर से 3000 दावेदारों में आखिरकार कांग्रेस ने विधान परिषद के लिए तारिक अनवर को अपना उम्मीदवार बनाया और तारिक अनवर को उच्च सदन भेजने का फैसला किया। हालांकि बिहार के वोटर लिस्ट में नाम नहीं होने के कारण उनका नाम वापस ले लिया गया और कार्यकारी अध्यक्ष समीर सिंह को अपना प्रत्याशी बना दिया फिर भी,तारिक अनवर को अचानक ही केंद्र की राजनीति से बिहार की पॉलिटिक्स में एंट्री करवाने की कांग्रेस की योजना से सभी हैरत में पड़ गए। जाहिर है बिहार के सियासी हलकों में कई मायने निकाले जा रहे हैं। दरअसल महागठबंधन में मची खींचतान और कांग्रेस को बिहार में खुद को स्थापित करने के लिए एक अवसर के तौर पर इसे देखा जा रहा है। माना तो जा रहा है कि कांग्रेस ने काफी सोच-समझकर ये फैसला किया कि तारिक अनवर का चेहरा आगे लाया जाए। राजनीतिक जानकारों का मानना है कि इसका असर आने वाले दिनों में बिहार की राजनीति पर साफतौर पर देखा जाएगा।

तारिक अनवर भले ही विधान परिषद में एंट्री न ले पाए हों, लेकिन कांग्रेस के सूत्र बताते हैं कि आने वाले समय में उन्हें बिहार प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष की बागडोर सौंपी जा सकती है। इसके बाद कांग्रेस उन्हें अपनी पार्टी की ओर से सीएम फेस भी घोषित कर सकती है। इसके पीछे तर्क यह दिया जाता है कि महागठबंधन में तारिक अनवर जैसा कोई भी चेहरा फिलहाल नहीं दिख रहा है जिनपर सभी दलों को ऐतबार हो और वे गैरविवादित छवि के भी हों। सीमांचल इलाके में असदुद्दीन ओवैसी की बढ़ती ताकत के बीच कांग्रेस ने तारिक अनवर को मेन स्ट्रीम में जहां मुस्लिम वोट बैंक को पार्टी की तरफ आकर्षित करने की कोशिश की है, वहीं हिंदू समुदाय में भी उनकी पकड़ को बखूबी जानती है। ध्यान देने की बात है कि तारिक अनवर को श्रीमती इंदिरा गांधी कांग्रेस में लायी थीं। सन 1976 में इंदिरा गांधी बिहार यूथ बिग्रेड के अध्यक्ष रहे तारिक अनवर पार्टी का काफी भरोसेमंद चेहरा बन गये थे। वे 1988 से 1989 तक बिहार कांग्रेस के अध्यक्ष रहे थे और 5 बार लोकसभा सदस्य रहे।तारिक अनवर ने सोनिया गांधी के विदेशी मूल के मुद्दे पर 1999 में कांग्रेस से बगावत कर शरद पवार के साथ राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी(एनसीपी) का गठन किया था। हालांकि 19 वर्ष के बाद अक्टूबर 2018 में तारिक अनवर की कांग्रेस में वापसी हो गयी थी।

अब बिहार की राजनीति में फिर से नए समीकरण बन रहे हैं । इसी के तहत गत 23 जून को कांग्रेस की अगुवाई में महागठबंधन दलों की वर्चुअल मीटिंग हुई और महागठबंधन को मजबूत बनाए जाने को लेकर सहमति जताई गई। माना जाता है कि राजद के खिलाफ बागी रुख अख्तियार करने वाले जीतन राम मांझी को भी तारिक अनवर के चेहरे से कोई ऐतराज नहीं होगा। मांझी की महागठबंधन में समन्वय समिति बनाने की मांग को भी एक तरह से कांग्रेस ने समर्थन दिया है। महागठबंधन में किसी को भी तारिक पर ऐतराज नहीं दिख रहा है। राजग का साथ छोड़ने वाले उपेंद्र कुशवाहा तो पहले से ही कांग्रेस के नेतृत्व की बात कहते रहे हैं। दरअसल कुशवाहा ने एनडीए छोड़ जब महागठबंधन ज्वाइन किया था तो उन्होंने कांग्रेस की राह ही पकड़ी थी न कि राजद की। इसप्रकार मांझी, कुशवाहा और विकाशसील इंसान पार्टी के मुकेश सहनी की तिकड़ी कांग्रेस के साथ अधिक सहज महसूस करती है। हाल में वर्चुअल मीटिंग के दौरान भी यही साफ हुआ कि अगर केंद्र में कांग्रेस हो तो इन छोटे दलों में तालमेल बिठाने में आसानी होगी।

इस प्रकार माना जा रहा है कि तारिक अनवर के रूप में कांग्रेस के पास दमदार चेहरा है। कांग्रेस में तारिक अनवर के नाम पर कोई असहमति नहीं होगी। तारिक अनवर का बैकग्राउंड भी कांग्रेस से जुड़ता है और वे सोनिया और राहुल के विश्वासपात्रों में भी शामिल हैं। कटिहार में राहुल गांधी ने तारिक अनवर के लिए जनसभा को भी संबोधित किया था। यही वजह है कि कांग्रेस अगर उनका नाम सामने लाएगी तो अपेक्षाकृत कम अनुभवी तेजस्वी यादव को भी कोई ऐतराज शायद न हो। तारिक कांग्रेस के लंबे गेमप्लान का हिस्सा माने जा रहे हैं। कांग्रेस की तारिक अनवर को मेन स्ट्रीम में लाने की रणनीति से जहां मुस्लिम वोट बैंक को कांग्रेस खींच सकेगी, वहीं हिंदू समुदाय में भी उनकी पकड़ का लाभ पार्टी को मिलेगा। खास तौर पर कांग्रेस से विमुख हुआ सवर्ण तबका भी तारिक अनवर की छवि को देखते हुए फिर से कांग्रेस की ओर रुख कर सकता है। कांग्रेस चाहती है कि तारिक अनवर की बेदाग छवि के सहारे बिहार में हाशिये पर चली गई कांग्रेस महागठबंधन में लीड रोल में एक बार फिर आए। हालांकि यह समीकरण आरजेडी के रुख पर भी निर्भर करेगा कि क्या वह कांग्रेस की इस रणनीति के साथ चलने को तैयार है ?

~अशोक त्रिपाठी ( हिफी)

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