चुनावो को लेकर सराहनीय पहल

चुनावो को लेकर सराहनीय पहल

लखनऊ। लोकतंत्र में चुनाव बहुत महत्वपूर्ण होते हैं। लोक अर्थात् जनता अपने लिए अपने ही द्वारा सरकार चुनती है। प्रजातंत्र का मतलब भी यही है। हालांकि चुनाव में कभी-कभी पचास फीसद से कम मतदान और दूसरे तरह की अनियमितताएं लोकतंत्र की मूल भावना को ही खोखला कर रही हैं लेकिन भारत का प्रजातंत्र फिर भी सराहनीय है। हमारे पड़ोस के पाकिस्तान, बांग्लादेश, म्यांमार जैसे देशों से जो खबरें मिलती हैं, उनसे लगता है कि प्रजातंत्र का उपहास उड़ाया जा रहा है। पाकिस्तान के पंजाब प्रांत में अभी जिस तरह वहां के पीएम के बेटे को पहले मुख्यमंत्री पद की शपथ दिलायी गयी और बाद में वहां के सुप्रीम कोर्ट ने विपक्षी दल के नेता को सीएम घोषित किया, उससे लगता है कि हमारा प्रजातंत्र काफी मजबूत है। इसलिए चुनावों को लेकर जो पहल की जा रही है, उसका स्वागत किया जाना चाहिए। विपक्षी दलों को भी इसमें सहयोग करना होगा। हमारे देश में लगभग हर साल कोई न कोई चुनाव होते ही रहते हैं, इसलिए कवायद चल रही है कि लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव एक साथ कराए जाएं। इस प्रकार चुनाव आयोग का ही करोड़ों रुपया बचाया जा सकेगा। चुनाव लड़ने वाले भी करोड़ों-अरबों रुपया खर्च करते हैं। इस धनराशि को भी बचाया जा सकता है। इसके साथ ही यह कहना भी सामयिक होगा कि चुनावों की कई और खामियां हैं, उनको भी दूर किया जाए। मसलन एक साथ दो-दो सीटों पर चुनाव लड़ना। आपराधिक प्रवृत्ति के लोगों को चुनाव लड़ने से रोका जाए। इसके लिए केन्द्र सरकार को ही नियम बनाना पड़ेगा। चुनाव की सुगमता के साथ उनकी शुचिता भी बनी रहनी चाहिए। देश की सबसे बड़ी अदलत और चुनाव आयोग ने भी इस बारे में कई बार सुझाव दिया है।

शुरुआत सरकार ने अपने मन मुताबिक सुधार से की है। पूर्व की कांग्रेस के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार और मौजूदा नरेन्द्र मोदी सरकार पहले से कह रही थी कि लोकसभा और राज्यसभा के चुनाव एक साथ कराये जा सकते हैं। अब नरेन्द्र मोदी की सरकार ने देश में विधानसभा और लोकसभा चुनाव एक साथ कराने के लिए कवायद तेज कर दी है। एक साथ चुनाव कराने से देश का करोड़ों रुपये का खर्च बच सकता है। चुनाव लगभग हर साल होते हैं। वर्ष 2014-15 में चुनाव आयोग ने 510 करोड़ का फण्ड इसके लिए जारी किया था। यह फण्ड वर्ष 2015-16 में 1490 करोड़ के लगभग पहुंच गया। वर्ष 2016-17 में सीमित चुनाव हुए, इसलिए चुनाव आयोग को 356 करोड़ के लगभग धनराशि देनी पड़ी। इसके बाद 2017-18 में कई राज्यों ,में विधानसभा के चुनाव हुए जिससे चुनाव आयोग को 1199 करोड़ रुपये खर्च करने पड़े थे। इसके बाद वर्ष 2018-19 मंे 866 करोड़ और 2019-20 में 1372 करोड़ रुपये चुनाव आयोग ने खर्च किये। अभी 2022 में पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव हुए हैं और साल के अंत तक दो राज्यों मंे चुनाव होने हैं। इस पर चुनाव आयोग कितना व्यय करेगा, इसका पता बाद में ही चल जाएगा। इसके साथ ही राजनीतिक दल कितना खर्च करते हैं, उसका आंकड़ा तो नहीं मिला लेकिन 2019 के लोकसभा चुनाव में 60 हजार करोड़ रुपये खर्च किया गया था। यह तो घोषित धनराशि है, खर्च इससे कहीं ज्यादा किया गया।

इस तस्वीर को देखकर यह कहना उचित है कि चुनाव एक साथ कराये जाएं। वर्ष 2018 में विधि आयोग ने ऐसा कहा भी था कि ऐसा माहौल है जिससे देश मंे विधानसभा और लोकसभा के चुनाव एक साथ कराए जा सकते हैं। आयोग ने उस समय सुझाव दिया था कि संविधान के अनुच्छेद 83 (संसद के कार्यकाल), अनुच्छेद 172 (विधानसभा के कार्यकाल) तथा जनप्रतिनधित्व कानून, 1951 में संशोधन करने के उपरांत चुनाव एक साथ करवाए जा सकते हैं। अब, सबसे पहले तो यह जरूरी है कि विधि आयोग का अध्यक्ष मनोनीत किया जाए क्योंकि सरकार ने विधि आयेाग को यह मामला सौंपा है लेकिन फैसला बगैर अध्यक्ष के कैसे होगा। इसके साथ ही केन्द्र सरकार एक साथ दो-दो सीटों पर चुनाव लड़ने और अपराधियों को चुनाव लड़ने से रोकने के लिए कानून में संशोधन करे।

भारत जैसे जीवंत लोकतंत्र में यह आवश्यक है कि देश में सुशासन के लिए सबसे अच्छे नागरिकों को जन प्रतिनिधियों के रूप में चुना जाए। इससे जनजीवन में नैतिक मूल्यों को बढ़ावा मिलता है, साथ ही ऐसे उम्मीदवारों की संख्या भी बढ़ती है जो सकारात्मक वोट के आधार पर चुनाव जीतते हैं। लोकतंत्र की इस प्रणाली में मतदाता को उम्मीदवार चुनने या अस्वीकार करने का अवसर दिया जाना चाहिये जो राजनीतिक दलों को चुनाव में अच्छे उम्मीदवार उतारने पर मजबूर करे। कोई भी लोकतंत्र इस आस्था पर काम करता है कि चुनाव स्वतंत्र और निष्पक्ष होंगे। यह चुनाव प्रक्रिया ही है जो चुने गए लोगों को गुणवत्ता और उनके प्रदर्शन के माध्यम से हमारे लोकतंत्र को प्रभावी बनाती है। प्रायः उम्मीदवार अपने आपराधिक रिकॉर्ड का ब्यौरा नहीं देते हैं। वे अपनी संपत्ति, देनदारियों, आय तथा शैक्षिक योग्यता का विवरण नहीं देते हैं।

चुनाव में धन की बढ़ती भूमिका हमारी चुनाव व्यवस्था का गंभीर दोष है। चुनाव में पैसा पानी की तरह बहाया जाता है। अत्यधिक चुनावी व्यय के कारण सामान्य व्यक्ति निर्वाचन को प्रक्रिया से दूर होता जा रहा है। पिछले कुछ वर्षो में कानून-सम्मत और असल खर्चो के बीच अंतर काफी बढ़ा है। चुनाव जीतने के लिये उम्मीदवार बाहुबल का प्रयोग करते हैं। हिंसा, धमकी और बूथ कैप्चरिंग में बाहुबल की बड़ी भूमिका होती है। यह समस्या पहले अमूमन देश के उत्तरी भागों में हुआ करती थी पर अब बाकी प्रांतों में भी फैल रही है। अपराधी व्यक्ति अपना रसूख और जनता में पैठ बनाने के लिए राजनीति में प्रवेश करते हैं और पुरजोर कोशिश करते हैं कि उनके खिलाफ मामलों को समाप्त कर दिया जाए या उन पर कार्रवाई न की जाए।

विडम्बना यह है कि इसमें उनकी मदद कुछ राजनीतिक दल करते हैं जो धन और रसूख के लिये इन्हें चुनाव मैदान में उतारते हैं और बदले में इन्हें राजनीतिक संरक्षण और सुरक्षा प्रदान करते हैं। किसी भी मजबूत उम्मीदवार के खिलाफ प्रतिद्वंद्वियों द्वारा बड़े पैमाने पर निर्दलीय उम्मीदवारों को उतारा जाता है ताकि उसके वोट काटे जा सकें। ऐसे कई राजनीतिक दल हैं जो विशेष जाति या समूह से आते हैं। ये जाति, समूह पार्टियों पर भी दबाव डालते हैं कि उन्हें क्षेत्रीय स्वायत्तता और जाति की संख्या के मुताबिक टिकट दिये जाएँ। जाति आधारित राजनीति देश की बुनियाद और एकता पर प्रहार कर रही है और आज जाति चुनाव जीतने में एक प्रमुख कारक बनी हुई है तथा अक्सर उम्मीदवारों का चयन उपलब्धियों, क्षमता और योग्यता के आधार पर न होकर जाति, पंथ और समुदाय के आधार पर होता है। (हिफी)

(अशोक त्रिपाठी-हिन्दुस्तान समाचार फीचर सेवा)

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