CBI की साख बचाने का दायित्व

CBI की साख बचाने का दायित्व

नई दिल्ली। केन्द्रीय अन्वेषण ब्यूरो (सीबीआई) को यूपीए सरकार के समय सुप्रीम कोर्ट ने पिंजरे में बंद तोते की संज्ञा दी थी। उसके बाद भी सीबीआई की साख अपने पूर्व रूप में नहीं पहुंच पायी। पहले अपराधी इस बात से सहम जाते थे कि उनके मामले की जांच सीबीआई से करायी जाएगी। अब सीबीआई से विपक्षी दल के नेता ही डरते हैं। अनुभवी आईपीएस सुबोध कुमार जायसवाल इस सबसे बड़ी जांच एजेंसी के निदेशक बनाए गये हैं। इससे पहले सीबीआई के निदेशक और उनके एक अधीनस्थ के बीच गंभीर आरोपों का आदान-प्रदान भी हुआ था। निदेशक पद के लिए तीन अधिकारी दावेदार थे। भारत के मुख्य न्यायाधीश (सीजेआई) की दलील के चलते सुबोध जायसवाल को यह कुर्सी मिली है।

सीबीआई का नया निदेशक चुनने के लिए लगभग डेढ़ घंटे तक बैठक हुई। इस बैठक में संस्था का नया मुखिया चुनने के लिए तीन नामों की एक फाइनल सूची बनी। इसमें के.आर. चन्द्रा, सुबोध जायसवाल और वीकेएस कौमुदी के नाम शामिल थे। सीबीआई के चीफ के चुनाव को लेकर हाई पावर कमेटी की बैठक होती है। इस बार भी 25 मई को यही हुआ। बैठक में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी, मुख्य न्यायाधीश (भारत) एनवी रमन्ना और लोकसभा में विपक्ष के नेता अधीर रंजन चौधरी मौजूद थे। बताते हैं कि 1984 से 1987 बैच के लगभग 110 अधिकारियों के नाम में से कार्मिक एवं प्रशिक्षण विभाग ने हाई पावर कमेटी को 10 नामों की एक सूची दी थी। बाद में इस सूची से 4 नाम और कम हो गये। इस प्रकार सूची में सिर्फ 6 नाम बचे थे। इनमें बीएसएफ चीफ राकेश अस्थाना और एनआईए चीफ वाईसी मोदी भी शामिल थे। चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया (सीजेआई) ने कमेटी के सामने सिक्स मंथ रूल्स का जिक्र किया। उन्होंने प्रकाश सिंह के मामले में सुनाए गये लैण्ड मार्क जजमेंट की बात याद दिलाई। इस फैसले का विचार पुलिस प्रमुखों के कार्यकाल और चयन में आने वाली समस्याओं को ठीक करना था, ताकि ऐसी स्थिति से बचा जा सके जहां कुछ महीने के भीतर ही सेवानिवृत्त हो जाने वाले अफसर को पद दे दिया जाता था। यह स्थिति निश्चित रूप से अव्यावहारिक होती है क्योंकि चार-छह महीने तो समझने में ही लग जाते हैं। इसी बीच अफसर रिटायर हो जाता है। इसलिए कम से कम सिक्स मंथ रूल का ध्यान रखना चाहिए। सुप्रीम कोर्ट ने फैसला सुनाया था कि 6 महीने से कम के कार्यकाल वाले किसी भी अधिकारी को प्रमुख के पद के लिए शामिल नहीं किया जाना चाहिए। राकेश अस्थाना 31 जुलाई 2021 को सेवानिवृत्त हो रहे हैं और वाईसी मोदी का भी कार्यकाल 31 मई 2021 को समाप्त हो रहा है। इस प्रकार इन दोनों को सीबीआई निदेशक पद की दौड़ से बाहर करके सुबोध जायसवाल को निदेशक बनाया गया है।

हालांकि सुबोध जायसवाल के लिए इतना आसान रास्ता नहीं था। राकेश अस्थाना और वाईसी मोदी का नाम हटने के बाद भी सुबोध जायसवाल के साथ सशस्त्र सीमा बल के डीजी कुमार राजेश चन्द्रा और गृहमंत्रालय के विशेष सचिव बीएसके कौमुदी शामिल थे। इनको पीछे कर महाराष्ट्र के पूर्व डीजीपी सुबोध कुमार जायसवाल सीबीआई निदेशक बनाए गये हैं। सीबीआई निदेशक के लिए गैर विवादित व्यक्ति की तलाश थी इससे पहले चयन समिति ने ऋषि कुमार शुक्ला को सीबीआई का निदेशक चुना था। उन्हें 4 फरवरी 2019 को नियुक्त किया गया था। इससे पहले 1988 बैच के आईपीएस अफसर प्रवीण सिन्हा को सीबीआई का कार्यकारी प्रमुख नियुक्त किया गया था। उसी समय से पूर्णकालिक सीबीआई निदेशक की तलाश चल रही थी। वरिष्ठता के क्रम मंे राकेश अस्थाना और वाईसी मोदी ही इस कुर्सी के हकदार थे लेकिन सीजेआई का तर्क उनके खिलाफ चला गया।

हालांकि भारत के मुख्य न्यायाधीश का तर्क भी व्यावहारिक है। देश में पुलिस सुधार के लिहाज से प्रकाश सिंह मामले का फैसला काफी महत्वपूर्ण माना जाता है। उत्तर प्रदेश और असम के डीजीपी पद पर रह चुके प्रकाश सिंह ने वर्ष 1996 मंे भारत मंे पुलिस के कामकाज मंे स्पष्ट अंतराल और खराब परम्पराओं को उजागर करते हुए अपनी सेवानिवृत्ति के बाद सुप्रीम कोर्ट का रुख किया था। सुप्रीम कोर्ट ने 2006 मंे इस समस्या की गंभीरता को महसूस किया और कहा कि वह सरकारों द्वारा अपने दम पर कदम उठाने के लिए और इंतजार नहीं कर सकता। इस संबंध मंे अदालत ने कई निर्देश जारी किये थे, जो राज्य सरकारों के लिए बाध्यकारी थे और उन सुधारों पर कानून बनने तक उनका पालन किया जाना था। इन्हीं निर्देशों के हिस्से के रूप में सिक्स मंथ रूल अस्तित्व मंे आया था जो अब सुबोध कुमार जायसवाल को सीबीआई का नया निदेशक बनाने मंे सहायक हुआ है।

सुबोध कुमार जायसवाल ने एक दशक से अधिक समय तक इंटेलिजेंस ब्यूरो, स्पेशल प्रोटेक्शन ग्रुप (एसपीजी) और रिसर्च एण्ड एनालिसिस बिंग (राॅ) के साथ भी काम किया है। श्री जायसवाल ने महाराष्ट्र एटीएस का नेतृत्व करते हुए कई आतंकवाद विरोधी अभियानों मंे भी काम किया है। वे स्वच्छ छवि के पुलिस अधिकारी माने जाते हैं।

दो साल पूर्व सीबीआई में अफसरों के विवाद मामले पर सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने मोदी सरकार से कड़ाई से सवाल पूछे थे। सुप्रीम कोर्ट ने सरकार से कहा कि सीबीआई बनाम सीबीआई विवाद दो टॉप अफसरों के बीच की ऐसी लड़ाई नहीं थी जो रातोंरात सामने आई। सर्वोच्च अदालत ने कहा कि यह ऐसा मामला नहीं था कि सरकार को सिलेक्शन कमिटी से बातचीत किए बिना सीबीआई निदेशक की शक्तियों को तुरंत खत्म करने का फैसला लेना पड़ा। सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार के फैसले के खिलाफ आलोक वर्मा और एनजीओ कॉमन कॉज की अपील पर सुनवाई पूरी कर फैसला सुरक्षित रख लिया था। इससे पहले याचिका पर सुनवाई करते हुए तत्कालीन चीफ जस्टिस रंजन गोगोई की नेतृत्व वाली बेंच ने कहा कि केंद्र ने खुद माना है कि ऐसी स्थितियां पिछले 3 महीने से पैदा हो रही थीं। बेंच ने कहा कि अगर केंद्र सरकार ने सीबीआई डायरेक्टर की शक्तियों पर रोक लगाने से पहले चयन समिति की मंजूरी ले ली होती तो कानून का बेहतर पालन होता। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि सरकार की कार्रवाई की भावना संस्थान के हित में होनी चाहिए। चीफ जस्टिस ने पूछा था कुछ महीने इंतजार कर लेते तो क्या हो जाता?

उस समय सीबीआई विवाद की सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट के तेवर सख्त नजर आए और चीफ जस्टिस रंजन गोगोई ने सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता से पूछा कि सरकार ने 23 अक्टूबर को सीबीआई डायरेक्टर आलोक वर्मा की शक्तियां वापस लेने का फैसला रातोंरात क्यों लिया? चीफ जस्टिस ने पूछा, जब वर्मा कुछ महीनों में रिटायर होने वाले थे तो कुछ और महीनों का इंतजार और चयन समिति से परामर्श क्यों नहीं हुआ? तुषार मेहता ने सुप्रीम कोर्ट को बताया कि केंद्रीय सतर्कता आयोग (सीवीसी) इस निष्कर्ष पर पहुंचा था कि असाधारण स्थितियां पैदा हुईं। उन्होंने कहा कि असाधारण परिस्थितियों को कभी-कभी असाधारण उपचार की आवश्यकता होती है। सॉलिसिटर जनरल ने कहा, सीवीसी का आदेश निष्पक्ष था, दो वरिष्ठ अधिकारी लड़ रहे थे और अहम केसों को छोड़ एक दूसरे के खिलाफ मामलों की जांच कर रहे थे।

सीबीआई डायरेक्टर आलोक वर्मा से शक्तियां छीनने के फैसले का बचाव करते हुए वेणुगोपाल ने कहा था कि सरकार ने अपने अधिकार क्षेत्र में काम किया है। बता दें कि सीनियर ऐडवोकेट फली एस. नरीमन, कपिल सिब्बल, दुष्यंत दवे और राजीव धवन न 29 नवंबर को सुनवाई में वर्मा की शक्तियां छीनने के सरकार की कार्रवाई की कानूनी वैधता पर सवाल उठाया था।

अदालत ने तब कहा था कि वह सुनवाई इस पर सीमित करेगी कि क्या सरकार के पास बिना चयन समिति की सहमति के सीबीआई प्रमुख के खिलाफ कार्रवाई करने का अधिकार है या नहीं। ऐसी हालत अब न आए, इसीलिए सोच समझ कर तैनाती हुई। (हिफी)

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