राजनीति की यह सूरत कैसे बदलेगी

राजनीति की यह सूरत कैसे बदलेगी

नई दिल्ली। अभी हाल ही में बिहार विधानसभा के चुनाव सम्पन्न हुए। इसके साथ ही देश भर में पचास से अधिक सीटों पर उपचुनाव कराए गये थे। इनमें कितने ही प्रत्याशी ऐसे थे जिन पर गंभीर आपराधिक मुकदमे चल रहे हैं लेकिन उन्हें अभी सजा नहीं मिली। सजा याफ्ता होने पर सुप्रीम कोर्ट का नियम लागू हो जाता है। लालू प्रसाद यादव जैसे नेता इसी के चलते सक्रिय राजनीति से वंचित कर दिये गये। राजनीति में अपराधीकरण को रोकने का एक और प्रयास हुआ था लेकिन देश की सबसे बड़ी अदालत ने इस मामले में हाथ खड़े कर दिये क्योंकि देश का संविधान इसकी इजाजत नहीं देता है। गैर सरकारी संगठन लोक प्रहरी ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दाखिल की थी लेकिन कोर्ट ने कहा कि यह उसके अधिकार क्षेत्र से बाहर है। याचिका में कहा गया था कि गंभीर मामलों में चार्जशीट किये गये नेताओं को चुनाव लड़ने से प्रतिबंधित किया जाए और इसके लिए सुप्रीम कोर्ट केन्द्र सरकार को निर्देश दे कि वो कोई ऐसा कानून बनाए। सुप्रीम कोर्ट ने याचिकाकर्ता से कहा कि कोर्ट संसद को ऐसा कानून बनाने का निर्देश नहीं दे सकता है।

न्यायमूर्ति एल. नागेश्वर राव, न्यायमूर्ति हेमंत गुप्ता और न्यायमूर्ति अजय रस्तोगी की पीठ ने कहा कि याचिकाकर्ता शीर्ष अदालत के 2018 में लिये गये फैसले और उसमें सुझाए गये उपायों पर अमल का मार्ग अपना सकता है। इस फैसले में न्यायालय ने गंभीर आपराधिक मामलों का सामना कर रहे व्यक्तियों को संसद में प्रवेश का मामला संसद के विवेक पर छोड़ दिया था। पांच सदस्यीय संविधान पीठ ने सितम्बर 2018 में अपने फैसले में कहा था कि यद्यपि राजनीति का अपराधीकरण एक कड़वी सच्चाई है जो दीमक की तरह लोकतंत्र को खोखला कर रही है लेकिन कोर्ट अर्थात् न्यायपालिका विधायिका के अधिकार क्षेत्र में हस्तक्षेप नहीं कर सकती। कानून बनाने का अधिकार विधायिका का है, जिसे न्याय पालिका हड़पना नहीं चाहती है। इस प्रकार अदालत ने अपनी यह मंशा तो जता दी है कि राजनीति में बढ़ते अपराधीकरण से वह चिंतित है लेकिन अपने अधिकारों के प्रति भी वह सीमा का उल्लंघन नहीं करना चाहती है। गैर सरकारी संगठन लोकप्रहरी के महासचिव एसएन शुक्ला ने पीठ से कहा था कि आपराधिक मामलों का सामना कर रहे व्यक्तियों का निर्वाचन विधि के शासन और स्वतंत्र तथा निष्पक्ष चुनाव के खिलाफ है। इसमें कोई संदेह भी नहीं है। अपराधी इस समय राजनीति को अपनी गिरफ्त में लिये हुए हैं। उनका किसी विशेष राजनीतिक दल से ताल्लुक भी नहीं है। उन्हें तो सिर्फ सत्ता का संरक्षण चाहिए। इसलिए सत्ता बदलते ही वे अपनी निष्ठा बदल लेते हैं और राजनीतिक दल भी जानते हैं कि यह व्यक्ति बाहुबल अथवा धनबल से चुनाव जीत सकता है तो उसे अपनी पार्टी में शामिल कर लेते हैं। कोई भी राजनीतिक दल दूध का धुला नहीं रह गया है।

ऐसे में अगर कोई संगठन या व्यक्ति आवाज उठाता है तो उसके साथ समाज को जुड़ना होगा। मरहूम दुष्यंत कुमार के शब्दों में 'मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही, हो कहीं भी आग लेकिन आग जलनी चाहिए। यह आग कैसे जलेगी, इस पर विचार करना होगा। संसद से यह उम्मीद कतई नहीं की जा सकती कि वो ऐसा कोई कानून बनाएगी। राजनीतिक दल आदर्शवादी भाषण देते हैं लेकिन उन पर अमल नहीं करते। सत्ता में आने पर कहते हैं कि हम तो लोगों को सुधरने का अवसर दे रहे हैं। गंगा की तरह लोगों को पवित्र कर रहे हैं। बिहार में अभी हाल ही विधानसभा चुनाव सम्पन्न हुआ है। इस चुनाव में पहले चरण में ही 1066 उम्मीदवार अपना भाग्य आजमा रहे थे। इनमें 319 प्रत्याशी दागी बताये जाते हैं। सुप्रीम कोर्ट और चुनाव आयोग के प्रयासों के बावजूद इन्हे रोका नहीं जा सका। भोजपुर जिले के दिनारा विधानसभा क्षेत्र से 19 प्रत्याशी चुनाव लड़ रहे थे। इनमें से नौ प्रत्याशियों के खिलाफ गंभीर मामले दर्ज हैं। इसी प्रकार गुरुवा विधानसभा क्षेत्र में 10 प्रत्याशी आपराधिक छवि वाले थे। राजनीतिक दलों के हिसाब से देखें तो सत्तारूढ़ जनता दल(यू) ने गोपालगंज के कुचायकोट से बाहुबली अमरेन्द्र पांडेय उर्फ पप्पू पांडेय को उम्मीदवार बनाया। इसी पार्टी से बाहुबली बोगो सिंह भी किस्मत आजमा रहे थे। राज्य की मुख्य विपक्षी पार्टी राष्ट्रीय जनता दल(राजद) जिसको सबसे ज्यादा विधायक मिले हैं, उसने कुछ दिनों पहले ही जेल से छूटे रीतलाल राय उर्फ रीतलाल यादव को दानापुर से प्रत्याशी बनाया था। मोकामा से बाहुबली अनंत सिंह को भी तेजस्वी की पार्टी ने टिकट दिया था। राजद की आधिकारिक वेबसाइट पर 38 ऐसे प्रत्याशियों का ब्यौरा दिया गया था, जिन पर आपराधिक मामले दर्ज हैं। पार्टी के वरिष्ठ नेता रघुवंश प्रसाद सिंह, जो लालू यादव के बहुत नजदीकी रहे और चुनाव के दौरान ही जिनका निधन हो गया, उन्होंने राजद से इस्तीफा ही इसलिए दिया था कि तेज प्रताप ने एक बाहुबली को पार्टी में शामिल करने की घोषणा कर दी थी। राजद की तरह ही रामविलास पासवान की लोक जनशक्ति पार्टी (लोजपा) ने भी ब्रह्मपुर से बाहुबली हुलास पांडेय को मैदान में उतारा था। इनके बड़े भाई बाहुबली सुनील पांडेय तो निर्दलीय तरारी से चुनाव लड़ रहे थे।

इस प्रकार अपनी-अपनी जमीन बचाने के लिए सभी दलों ने बाहुबलियों का सहारा लिया। राज्य में ऐसा कोई विधानसभा क्षेत्र नहीं था जहां बाहुबली चुनाव को प्रभावित करने की हैसियत न रखते हों। चुनाव जीतने के लिए राजनीतिक दलों ने स्थानीय दबंगों अथवा उनके नाते-रिश्तेदारों को उम्मीदवार बनाया था। एसोसिएशन फार डेमोक्रेटिक रिफार्म्स (एडीआर) की रिपोर्ट के अनुसार 2010 में हुए विधानसभा चुनाव में 3058 प्रत्याशी मैदान में थे जिनमें 986 दागी थे। इसी प्रकार 2015 के विधानसभा चुनाव में 3450 प्रत्याशियों में से आपराधिक पृष्ठभूमि के उम्मीदवारों की संख्या 1038 थी। इसका मतलब 30 फीसद दागी उम्मीदवार चुनाव लड़ रहे थे। इसमें 796 के खिलाफ हत्या, हत्या के प्रयास, साम्प्रदायिक माहौल बिगाड़ने, अपहरण और महिला उत्पीड़न जैसे मामले दर्ज थे। बिहार में 2015 के चुनाव में जद(यू) ने 41, राजद ने 29, भाजपा ने 39 और कांगे्रस ने 41 फीसद दागी लोगों को टिकट दिया था। यही वजह रही कि 243 सदस्यीय विधानसभा 138 विधायक दागी थे।

दलगत आधार पर राजद के 81 विधायकों में 46, जद(यू) के 71 विधायकों में 37, भाजपा के 53 विधायकों में 34, कांग्रेस के 27 विधायकों में 16 और सीपीआई के तीनों विधायकों व रालोसपा और लोजपा के एक-एक विधायक के खिलाफ आपराधिक मामले दर्ज थे। इस बार के चुनाव अर्थात् 2020 में भी हालात में कोई ज्यादा बदलाव आने की उम्मीद नहीं की जा सकती। मजबूरी यह कि अदालत और चुनाव आयेाग सिर्फ सुझाव दे सकते हैं और कानून बनाने का जिनको अधिकार है, वे अपने स्वार्थ के आगे विवश हैं। (हिफी)

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