CBSE के सिलेबस कटौती से छिड़ा विवाद

CBSE के सिलेबस कटौती से छिड़ा विवाद

लखनऊ। स्कूली बस्तों का लगातार बढ़ता बोझ लंबे अरसे से छात्रों और अभिभावकों के लिए गंभीर चिंता का मुद्दा रहा है ऐसे में यह अच्छी खबर है कि सीबीएसई ने अपने सिलेबस में कटौती की है। केंद्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड ने लोकतांत्रिक अधिकार, धर्मनिरपेक्षता और राष्ट्रवाद, नागरिकता, नोटबंदी, भारत के अपने पड़ोसियों के साथ रिश्ते, भारत में स्थानीय सरकारों का विकास और लोकतांत्रिक अधिकारों के बारे में कई अध्यायों को मौजूदा शैक्षणिक वर्ष के लिए पाठ्यक्रम से हटा दिया है। सीबीएसई ने 7 जुलाई को अधिसूचित किया कि उसने कोविड-19 संकट के बीच विद्यार्थियों पर पाठ्यक्रम का भार कम करने के लिए 7 जुलाई को कक्षा नौवीं से बारहवीं तक के पाठ्यक्रम को शैक्षणिक सत्र 2020 21 के लिए 30 फीसदी तक कम कर दिया है। हटाए गए पाठ्यक्रम पर केंद्र सरकार की विपक्षी राजनीतिक दलों और सोशल मीडिया पर कड़ी आलोचना की जा रही है। दरअसल, सीबीएसई ने 9वीं कक्षा से 12वीं तक के सिलेबस में 30 फीसदी की कटौती की है लेकिन सिलेबस में यह कटौती सिर्फ एक साल के लिए ही है। कोरोना के चलते लगातार स्कूल बाधित हैं। 2021 की वार्षिक परीक्षा के बाद 9वीं और 11वीं के स्टूडेंट्स को पूरा सिलेबस 10वीं और 12वीं में पढ़ना होगा। एनसीईआरटी की एक कमेटी ने पूरे सिलेबस में 30 फीसदी पाठ्यक्रम को कम करने की सिफारिश की थी। देश में सीबीएसई के 19 हजार 200 से अधिक स्कूल संचालित हैं।

लगातार मचे बवाल के बीच 8 जुलाई को देर शाम केंद्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड (सीबीएसई) सचिव अनुराग त्रिपाठी ने सफाई देते हुए एक स्पष्टीकरण जारी किया। उन्होंने कहा कि चार कक्षाओं की करीब 190 विषयों में 30 फीसदी पाठ्यक्रम की कटौती की गई है। कोरोना काल के चलते ये सिर्फ एक बार की व्यवस्था है ताकि छात्रों के तनाव को दूर किया जा सके। सीबीएसई सचिव ने पत्र जारी कर कहा है कि बोर्ड द्वारा सिलेबस में की गई कटौती को मीडिया ने गलत तरीके से पेश किया है। सचिव ने कहा कि 2020-21 की परीक्षाओं में उस पोर्शन से सवाल नहीं पूछा जाएगा जिसे पाठ्यक्रम से कम किया गया है। साथ ही स्कूलों को निर्देश दिया गया है कि एनसीईआरटी द्वारा तैयार किया गया अल्टरनेटिव एकेडमिक कैलेंडर को लागू करें। उन्होंने अपने पत्र में ये भी कहा है कि जिन टॉपिक्स को मीडिया में दिखाया जा रहा कि उसे हटा दिया गया है, उसे अल्टरनेटिव एकेडमिक कैलेंडर में शामिल किया गया है।

सिलेबस में कटौती के बाद राजनीतिक बवाल छिड़ गया है। सरकार के इस कदम को लेकर कई राजनेताओं ने अपनी नाराजगी व्यक्त की है। इस पर कांग्रेस के वरिष्ठ नेता शशि थरूर समेत कई नेताओं ने आपत्ति जताई है। उनका आरोप है कि सरकार जानबूझ कर कोरोना की आड़ में देश की साझी विरासत के साथ छेड़छाड़ कर रही है। दिल्ली के उपमुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया ने कहा कि सीबीएसई को स्कूल पाठ्यक्रम में से कुछ अध्यायों को हटाने का औचित्य बताना चाहिए और बोर्ड के पास इस कदम के लिए 'बहुत मजबूत' कारण होना चाहिए। दिल्ली के शिक्षा मंत्री मनीष सिसोदिया ने आगे कहा, ''दिल्ली सरकार हमेशा से पाठ्यक्रम में कटौती की तरफदार रही है और मैंने कई मौकों पर कहा कि ज्यादा पाठ्यक्रम होने का मतलब यह नहीं है कि (छात्र) ज्यादा सीखेगा। मैं 2020-21 के शैक्षणिक सत्र में माध्यमिक और उच्चतर माध्यमिक कक्षाओं के लिए पाठ्यक्रम को कम करने के सीबीएसई के फैसले का समर्थन करता हूं। मगर पाठ्यक्रम में जिस तरह से कटौती की गई है, उसे लेकर मेरी आशंकाएं और चिंताएं हैं।'' सिसोदिया ने यह भी कहा कि सामाजिक विज्ञान ऐसा विषय है जहां विवाद की सबसे ज्यादा गुंजाइश रहती है। सरकार के इस कदम पर निशाना साधते हुए सिसोदिया ने अंत में कहा, ''हटाए गए समाज विज्ञान के विषय मौजूदा संदर्भ में काफी अहम हैं और बच्चे को इन विषयों के बारे में व्हाट्सऐप यूनिवर्सिटी के बजाय सत्यापित स्रोत से सीखना चाहिए।''

पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने भी सीबीएसई के इस कदम पर हैरानी जताते हुए अपने ट्वीट में लिखा, ''इस बात को जानकर हैरानी हुई है कि केंद्र सरकार ने कोरोना महामारी के दौरान सीबीएसई कोर्स कम करने के लिए नागरिकता, संघीयता, धर्मनिरपेक्षता और विभाजन को हटा दिया है। हम कड़ाई से इसका विरोध करते हैं और मानव संसाधन विकास मंत्रालय और भारत सरकार से यह अपील करते हैं कि इन महत्वपूर्ण विषयों को किसी भी कीमत पर नहीं हटाया जाना चाहिए।'' इससे पहले पूर्व केंद्रीय मंत्री और कांग्रेस के वरिष्ठ नेता शशि थरूर ने भी यह मुद्दा उठाया था। थरूर ने अपने ट्वीट में शिक्षा मंत्री रमेश पोखरियाल निशंक को टैग करते हुए लिखा कि मैं पहले मंत्री को सीबीएसई का सिलेबस घटाने के लिए बधाई देने वाला था लेकिन फिर मैंने देखा कि इन लोगों ने क्या हटाया है। शशि थरूर ने लिखा कि अब दसवीं क्लास के बच्चे लोकतंत्र, लोकतंत्र को मिलने वाली चुनौती, धर्म, जाति जैसे सब्जेक्ट नहीं पढ़ पाएंगे। इसके अलावा 11-12वीं के बच्चे जो वोटर बनने की कगार पर हैं, उन्हें राष्ट्रवाद-सेक्युलरिज्म, बंटवारे और पड़ोसियों के साथ संबंध का पाठ नहीं पढ़ाया जाएगा। कांग्रेस नेता ने लिखा कि जिन्होंने ये बदलाव किए हैं उनकी मंशा पर सवाल खड़े होते हैं। क्या उन्होंने ये तय कर लिया है कि लोकतंत्र, सेक्युलरिज्म जैसे मुद्दे भविष्य के नागरिकों के लिए जरूरी नहीं हैं? मैं सरकार से अपील करता हूं कि इस तरह के फैसले पर दोबारा विचार करे। वहीं अगर शिक्षकों की मानें तो सिलेबस में कटौती का नुकसान 9वीं और 11वीं में पढ़ रहे स्टूडेट्स का अधिक हो रहा है। वार्षिक परीक्षा तो सिलेबस में कटौती से देंगे लेकिन 2021 में जब वे 10वीं और 12वीं में जाएंगे तो उनके लिए उन टॉपिक्स तो पढ़ना मुश्किल होगा, जिसका पहला भाग वे अभी नहीं पढ़ेंगे। गणित के शिक्षक संजय कुमार ने बताया कि 9वीं और 10वीं में कई चैप्टर हैं जो मिलते जुलते हैं। यही स्थिति 11वीं और 12वीं की है।

पाठ्यक्रम विवाद को छोड़ दें तो सीबीएसई की यह पहल एक सार्थक कदम है ऐसे में यह कहना गलत नहीं होगा कि किसी ने तो बच्चों के दर्द को समझा अब ऐसी ही पहल छोटे बच्चों के बस्ते के बोझ को कम करने की करनी होगी। 1993 में मानव संसाधन मंत्रालय की ओर से नियुक्त प्रोफेसर यशपाल समिति ने अपनी रिपोर्ट में कहा था कि छात्रों पर भारी बस्तों का बोझ नहीं लादना चाहिए। शिक्षा के अधिकार अधिनियम 2009 के तहत स्कूलों में साफ व समुचित पेय जल मुहैया कराने का प्रावधान तो है लेकिन इसमें बस्तों के बोझ कम करने का कोई जिक्र नहीं था। केंद्रीय विद्यालय संगठन ने 2010 में बस्तों का बोझ कम करने की एक नीति भी जारी की थी, लेकिन इसका पालन नहीं हुआ। बच्चों के बस्ते का बोझ को कम करने के लिए समय-समय पर विभिन्न अदालतों में जनहित याचिकाएं भी दायर की जाती रही हैं, लेकिन अब तक यह समस्या जस की तस है। एसोचैम की एक रिपोर्ट में भी सामने आया था कि 13 साल या इससे कम उम्र के 68 फीसद बच्चे बस्ते के बोझ से परेशान हैं और इन बच्चों ने पीठ में दर्द की शिकायत की है। कहना गलत न होगा कि बस्तों के बढ़े बोझ तले बच्चों का शारीरिक व मानसिक विकास सही ढंग से नहीं हो पा रहा है। घर से भारी बस्ते का बोझ और स्कूल से होम वर्क की अधिकता से शिशु दिमाग का विकास बाधित हो रहा है। बच्चों को व्यावहारिक विद्या सिखलाई जानी चाहिए, ताकि उनके विचार शक्ति में इजाफा हो। केंद्र व राज्य सरकारों को चाहिए कि वह शिक्षा पद्धति की विसंगतियों को दूर करने के लिये केवल कानून ही नहीं बनाये, बल्कि उन्हें पूरी ईमानदारी से लागू भी करें, तभी भारत का बचपन मुस्कुराता हुआ एक सशक्त और जिम्मेदार पीढ़ी के रूप में नई दिशाओं की ओर आगे बढ़ेगा।

(नाज़नींन-हिन्दुस्तान समाचार फीचर सेवा)

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