अल्पसंख्यकों को पारिभाषित करने की माँग

अल्पसंख्यकों को पारिभाषित करने की माँग

नई दिल्ली। नरेंद्र मोदी सरकार लुक ईस्ट पर आगे बढ़ते हुए समूचे पूर्वोत्तर क्षेत्र के चतुर्दिक विकास के लिए प्रतिबद्ध परिलक्षित हो रही है। सीमा सहित दुर्गम क्षेत्रों में आधारभूत संरचनाओं का संजाल बिछता जा रहा है। वहीं, एक महत्वपूर्ण घटनाक्रम में गुवाहाटी हाईकोर्ट और मेघालय हाईकोर्ट में दायर दो दाखिल अलग-अलग दो जनहित याचिकाओं में हिंदुओं को अल्पसंख्यक का दर्जा देने की मांग की गई है।

उक्त याचिकाओं में केंद्र सरकार की 23 अक्तूबर, 1993 को जारी उस अधिसूचना को चुनौती दी गई है जिसमें मुस्लिम, ईसाई, सिख, बौद्ध, पारसी और जैन समुदाय को अल्पसंख्यक घोषित किया गया था।

याचिका में कहा गया है कि पूर्वोत्तर भारत में ईसाई समुदाय के लोगों की बहुलता के बावजूद उनको अल्पसंख्यक का दर्जा मिला है। याचिका में मांग की गई है कि राष्ट्रीय आधार पर नहीं बल्कि विभिन्न राज्यों में आबादी के आधार पर अल्पसंख्यक श्रेणी में शामिल समुदाय के बारे में निर्णय किया जाना चाहिए।

मेघालय हाईकोर्ट में डेलिना खांग्डुप ने याचिका दायर की है। जबकि गुवाहाटी हाईकोर्ट में इसी प्रकार की मांग को लेकर पंकज डेका ने याचिका दायर की है। इन दोनों याचिकाओं में टीएमए पाई और अन्य बनाम कर्नाटक सरकार के मामले में सुप्रीम कोर्ट के ऐतिहासिक निर्णय का सन्दर्भ देते हुए कहा गया है कि नागालैंड, मिजोरम और मेघालय ईसाई-बहुल राज्य हैं। बाकी राज्यों में भी असम को छोड़ कर ईसाईयों की तादाद ही ज्यादा है। वहां हिंदु अल्पसंख्यक हैं। लेकिन उनको यह दर्जा नहीं मिला है। परिणामतः वे लोग अल्पसंख्यकों के लिए चलाई जाने वाली सरकारी योजनाओं का लाभ नहीं ले पाते। दूसरी ओर, बहुसंख्यक आबादी वाली जातियों को ऐसे तमाम फायदे मिल रहे हैं।

इन याचिकाओं में सुप्रीम कोर्ट के जिस निर्णय का सन्दर्भ दिया गया है उसमें शीर्ष न्यायालय ने कहा था कि राज्यों में आबादी के आधार पर ही भाषाई अल्पसंख्यकों के बारे में फैसला किया जाना चाहिए। सर्वोच्च न्यायालय ने कहा था कि किसी इलाके में जो लोग संख्या में कम हैं उन्हें संविधान के अनुच्छेद 30 (1) के तहत अपने धर्म और संस्कृति के संरक्षण के लिए स्कूल और कॉलेज खोलने का अधिकार है।

ध्यान रहे कई बार तिथियां आगे खिसकाने के बाद कुछ महीने पूर्व सर्वोच्च न्यायालय ने बीजेपी नेता और वकील अश्विनी उपाध्याय द्वारा दायर याचिका पर सुनवाई करने से इनकार कर दिया था जिसमें जम्मू-कश्मीर समेत आठ राज्यों में हिन्दुओं को अल्पसंख्यक के तौर पर शामिल कर नई अधिसूचना जारी करने की मांग की गई थी। साथ ही न्यायमूर्ति रोहिंटन फली नरीमन की पीठ ने याचिकाकर्ता को संबंधित उच्च न्यायालय जाने की स्वतंत्रता दे दी। याचिकाकर्ता ने जनहित याचिका को वापस ले लिया था। याचिका में लक्षद्वीप, मिजोरम, नगालैंड, मेघालय, जम्मू कश्मीर, अरुणाचल प्रदेश, मणिपुर और पंजाब में हिंदुओं को अल्पसंख्यक घोषित करने की मांग की गई थी।

याचिका में कहा गया था कि इन राज्यों में अल्पसंख्यक होने के बावजूद उन्हें अल्पसंख्यक नहीं घोषित किया गया और इन राज्यों में अल्पसंख्यकों को मिलने वाले लाभ बहुसंख्यक ले रहे हैं और हिंदू इन सुविधाओं से वंचित हैं। याचिका में यह भी बताया गया कि केन्द्र सरकार तकनीकी शिक्षा लेने वाले अल्पसंख्यक छात्रों को 20000 रुपये छात्रवृत्ति देती है। जम्मू-कश्मीर में मुसलमान 68.30 फीसदी हैं और सरकार 753 में से 717 छात्रवृत्तियां मुस्लिम छात्रों को देती है। वहां किसी भी हिन्दू छात्र को ये लाभ नहीं मिलता। इसके लिए 23-10-1993 की मुस्लिमों को अल्पसंख्यक वर्ग घोषित करने की अधिसूचना का सन्दर्भ दिया जाता है परन्तु हिंदू को अल्पसंख्यक का दर्जा नहीं दिया गया। राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग अधिनियम 1992 में बना और 17 मई 1993 में जम्मू कश्मीर को छोड़ कर पूरे भारत मे लागू हुआ। केन्द्र सरकार ने कानून की धारा 2(सी) के तहत 23 अक्टूबर 1993 को पांच समुदायों मुस्लिम, ईसाई, सिख, बौद्ध और पारसी को अल्पसंख्यक समुदाय घोषित किया। 2014 में इसमें जैन भी शामिल कर दिए गए। जबकि आठ राज्यों में अल्पसंख्यक होने के बावजूद हिंदुओं को इसमें शामिल नहीं किया गया।

याचिकाकर्ता द्वारा कहा गया था कि 2011 की जनगणना के अनुसार हिन्दू आठ राज्यों लक्षद्वीप (2.5 फीसदी), मिजोरम (2.7 फीसदी), नगालैंड (8.75 फीसदी ), मेघालय (11.53 फीसदी), जम्मू कश्मीर (28.44 फीसदी), अरुणाचल प्रदेश (29 फीसदी), मणिपुर (31.39 फीसदी), और पंजाब में (38.40 फीसदी) अल्पसंख्यक हैं, फिर भी उन्हें अल्पसंख्यक नहीं घोषित किया गया है। इन राज्यों में अल्पसंख्यकों को मिलने वाले लाभ बहुसंख्यक ले रहे हैं। इन राज्यों मे न तो केन्द्र ने और न ही राज्य सरकारों ने कानून के अनुसार हिन्दुओ को अल्पसंख्यक समुदाय अधिसूचित किया है। इस के चलते इन राज्यों में हिन्दू संविधान के अनुच्छेद 25 और 30 के तहत अल्पसंख्यक वर्ग को मिलने वाले लाभ से वंचित हैं।

याचिका में कहा गया है कि 1993 की समुदायों को अल्पसंख्यक घोषित करने की अधिसूचना न सिर्फ भेदभाव वाली बल्कि अतार्किक और संविधान के मूल ढांचे के खिलाफ है। मुसलमान लक्षद्वीप (96.20 फीसदी), जम्मू कश्मीर में (68.30 फीसदी) में बहुसंख्यक हैं। जबकि असम में (34.20 फीसदी) के साथ अच्छी खासी संख्या में हैं। साथ ही मुसलमान पश्चिम बंगाल में (27.5 फीसदी), केरल में (26.60 फीसदी) उत्तर प्रदेश में (19.30 फीसदी) और बिहार में (18 फीसदी) होने के बावजूद अल्पसंख्यक वर्ग को मिलने वाले लाभ ले रहें हैं । जबकि जो समुदाय वास्तव में अल्पसंख्यक हैं, वे संविधान के अंतर्गत मिलने वाले मौलिक अधिकारों से वंचित हैं।

याचिका में बताया गया था कि इसी प्रकार ईसाई मिजोरम, मेघालय और नगालैंड में बहुसंख्यक हैं। अरुणाचल प्रदेश, गोवा, केरल, मणिपुर, तमिलनाडु और पश्चिम बंगाल मे भी उनकी संख्या अच्छी खासी है । इसके बावजूद वे अल्पसंख्यक माने जाते हैं। इसी प्रकार सिख पंजाब में बहुसंख्यक हैं और दिल्ली, चंडीगढ व हरियाणा में भी उनकी अच्छी खासी संख्या है लेकिन वे अल्पसंख्यक माने जाते हैं। प्रधानमंत्री की धार्मिक व अल्पसंख्यकों के लिए बनाई गई 15 सूत्री योजनाओं को अरूणाचल प्रदेश, गोवा, मिजोरम, पश्चिम बंगाल, उत्तर प्रदेश, मेघालय, असम, मणिपुर, लक्षद्वीप, केरल, पंजाब और तमिलनाडू राज्यों में लागू नहीं किया जा रहा है। याचिकाकर्ता अश्विनी उपाध्याय ने अपनी याचिका में 2002 के टीएमए पाई बनाम कर्नाटक मामले में सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय का भी हवाला दिया गया था।

डेलिना खांग्डुप ने मेघालय हाईकोर्ट में दायर अपनी याचिका में वर्ष 2011 की जनगणना के आंकड़ों के हवाले से बताया है कि राज्य (मेघालय) में ईसाइयों की आबादी 74.59 प्रतिशत है जबकि हिंदुओं की 11.53 प्रतिशत। इसके अलावा आबादी में 4.4 प्रतिशत मुस्लिम, 0.33 प्रतिशत बौद्ध, 0.02 प्रतिशत जैन और 8.71 प्रतिशत दूसरे धर्मों के लोग शामिल हैं।

याचिकाकर्ताओं ने क्षेत्र में अल्पसंख्यक समुदाय के लोगों को तमाम सुविधाएं मुहैया कराने के लिए संविधान की सही व्याख्या की अपील की है। उनका कहना है कि संविधान के अनुच्छेद 29 और 30 में अल्पसंख्यक शब्द का उल्लेख तो है लेकिन इसे परिभाषित नहीं किया गया है।

बहरहाल, इन याचिकाओं से अल्पसंख्यकों को पारिभाषित करने मांग तेज हो गई है। परन्तु इसे साम्प्रदायिक रंग दिया जाना दुर्भाग्यपूर्ण है। प्राथमिक दृष्टया यह मामला केंद्र व राज्य सरकारों की हिन्दू विरोधी मानसिकत तथा तथाकथित अल्पसंख्यकों द्वारा भयादोहन का प्रतीत होता है। सर्वोच्च न्यायालय के पूर्ववर्ती आदेश का सम्मान करते हुए अल्पसंख्यक को पारिभाषित करने के साथ ही समान नागरिक संहिता को मूर्तरूप दिया जाना समय की मांग है। (मानवेन्द्र नाथ पंकज-हिन्दुस्तान समाचार फीचर सेवा)

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