न्याय में देरी, न्याय नहीं

नई दिल्ली। निर्भया सामूहिक दुष्कर्म और हत्या मामले में चार दोषियों को मौत की सजा सुनाने वाली जस्टिस आर भानुमति सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश पद से 29 जुलाई को रिटायर हो गईं। उससे पहले उन्होंने कहा कि वह और उनका परिवार भी मुश्किल कानूनी प्रक्रियाओं और उनमें हो रही देरी के कारण पीड़ित हुए हैं। इसके कारण उन्हें एक बस हादसे में उनके पिता के देहांत के बाद मुआवजा नहीं मिल सका। न्यायमूर्ति भानुमति ने तीन दशकों से अधिक समय तक न्यायाधीश के रूप में कार्य किया। उन्होंने 1988 में तमिलनाडु में जिला जज के रूप में अपना करियर शुरू किया। उन्हें अप्रैल 2003 में मद्रास उच्च न्यायालय में न्यायाधीश के रूप में पदोन्नत किया गया था। 2013 में उन्हें झारखंड उच्च न्यायालय का मुख्य न्यायाधीश नियुक्त किया गया था। अगस्त 2014 में, वह सुप्रीम कोर्ट की जज बनीं। सेवानिवृत्ति के बाद केवल दो महिला न्यायाधीश इंदिरा बनर्जी और इंदु मल्होत्रा सुप्रीम कोर्ट में हैं।
देश में न्याय व्यवस्था अक्सर आलोचना का शिकार होती रहती है। अब सुप्रीम कोर्ट की जज ने ही इस पर सवाल खड़े कर दिये हैं। सुप्रीम कोर्ट की जस्टिस भानुमति ने एक कार्रवाई के दौरान बड़ा बयान दिया। उन्होंने कहा कि लगभग 30 साल तक जस्टिस के तौर पर काम किया और मुझे भी लगता है कि न्याय मिलने में देरी होती है। सुप्रीम कोर्ट की तीन महिला जजों में से एक जस्टिस आर भानुमति ने कहा कि उनका परिवार भी न्यायिक देरी का शिकार था। जस्टिस ने अपने अंतिम कार्य दिवस में वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के जरिए अपने विदाई समारोह को संबोधित करते हुए कहा कि मैंने अपने पिता को एक बस दुर्घटना में खो दिया और मेरा परिवार मुआवजे के लिए न्यायिक देरी का शिकार हुआ। उन्होंने कहा कि, 'मैंने अपने पिता को एक बस दुर्घटना में खो दिया था। जब मैं मात्र दो साल की थी। उन दिनों हमें मुआवजे के लिए मुकदमा दर्ज करना होता था। मेरी मां ने वाद दायर किया और कोर्ट ने आदेश जारी किया किन्तु, हमें जटिल प्रक्रियाओं के चलते पैसा नहीं मिल सका। पिता की मौत के बाद हमारी मां को मेरा पालन पोषण बहुत कठिनाइयों के बीच करना पड़ा था।'
कानून और संविधान के शासन की यह पहली शर्त होती है कि न्याय तक सभी नागरिकों की समान पहुंच होनी चाहिए। साथ ही न्याय मिलने में अधिक विलंब भी नहीं होना चाहिए। क्योंकि देर से मिला न्याय अन्याय के समान ही होता है। हालांकि मौजूदा हालात में भारतीय अदालतों से ऐसी उम्मीद करना बेमानी ही होगा। इसके पीछे मुख्य रूप से दो वजहें हैं, पहला यह कि आज बहुत बड.ी संख्या में अदालतों में मुकदमें लंबित हैं। दूसरा यह कि कई बेवजह की कानूनी जटिलताएं अदालत से जल्द न्याय मिलने में बाधा बनी हुई हैं। भारतीय न्यायपालिका की इस कमजोरी से आज के न्यायाधीश भी भली-भांति वाकिफ हैं। न्याय में होने वाली देरी से मिलने वाले दर्द को सुप्रीम कोर्ट की न्यायमूर्ति जस्टिस आर. भानुमति बखूबी समझती हैं। 29 जुलाई को रिटायर हुईं जस्टिस भानुमति ने अपने इस दर्द को सार्वजनिक तौर पर बयां किया है। जस्टिस भानुमति ने कहा, अपने 30 साल के कॅरियर में मैंने खुद तमाम अकारण अवरोध देखे हैं।
सर्वोच्च न्यायालय के वर्तमान न्यायाधीशों में वह इकलौती थीं, जो अधीनस्थ न्याय जगत से सर्वोच्च न्यायालय में पदस्थ हुईं। उन्होंने यह भी कहा कि लोग विचाराधीन प्रकरणों की बड़ी संख्या पर चिंता व्यक्त करते हैं, पर मामलों की यह बड़ी संख्या सकारात्मक प्रयासों से ही समाप्त हो सकती है। न्याय व्यवस्था से जुड़ा प्रत्येक व्यक्ति न्यायमूर्ति आर भानुमति की चिंता से ग्रस्त है। वर्तमान में विभिन्न न्यायालयों में लगभग साढ़े तीन करोड़ मामले विचाराधीन हैं। सर्वोच्च न्यायालय में 58,700, उच्च न्यायालयों में लगभग 44 लाख और जिला अदालतों तथा अधीनस्थ न्यायालयों में लगभग तीन करोड़ मुकदमे लंबित हैं। इनमें अस्सी फीसदी से अधिक मामले जिला और अधीनस्थ न्यायालयों में विचाराधीन हैं। मौजूदा रफ्तार से इन विचाराधीन प्रकरणों के पहाड़ को समाप्त होने में करीब 324 साल लग सकते हैं। लगभग डेढ़ सौ ऐसे मामले हैं, जो 60 साल से विचाराधीन हैं। 66,000 मामले 30 साल से तथा 60,00,000 मामले पांच वर्ष से अधिक की अवधि के हैं। विचाराधीन मामलों में उत्तर प्रदेश और महाराष्ट्र सबसे आगे हैं। न्यायाधीशों की कमी, न्यायालयों में आधारभूत ढांचे की कमी तथा मामलों में एक पक्ष की विलंब में रुचि मामलों के लंबित होने के कारण हैं।
यहां ये याद रखना जरूरी है कि निचली अदालतों से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक मुकदमों के ढेर के साथ लोगों को न्याय मिलने में देरी, या फिर न्याय न मिलने की अन्य वजहें भी हैं। देश की कम से कम 85 फीसदी आबादी ऐसी है जिसके पास कोर्ट में मुकदमों की पैरोकारी के लिए या तो पर्याप्त धन नहीं है या फिर इसकी वजह अज्ञानता या न्यायालयों का दूर होना है। इसके बावजूद उनके विवाद ऐसे हैं जिनमें उन्हें न्याय शीघ्र मिलना चाहिए। 1950 से ही विधि आयोग की जितनी भी रिपोट्र्स आई हैं उनमें जजों की संख्या बढ़ाने पर जोर दिया गया। अदालतों में मुकदमों की फाइलें साल दर साल बढ़ती जा रही हैं और देश की न्यायिक व्यवस्था के लिए मुश्किलें खड़ी कर रही हैं। हालांकि विधायिका यानी सरकारों ने कभी इस ओर ध्यान नहीं दिया और इसकी वजह ये है कि इससे उनके वोट बैंक पर कोई असर नहीं पड़ता। न्याय का शासन जो कि लोकतंत्र का अहम आधार है, इसीलिए तेजी से पंगु होता जा रहा है। न्याय मिलने में हो रही देरी के बारे में गहन सोच-विचार करने की आवश्यकता है, क्योंकि समय पर होने वाले, सही और सधे हुए न्यायिक फैसले न्यायपालिका में आम जन के भरोसे की पहली शर्त है। एक बहुत प्रचलित कहावत है कि देर से मिला न्याय असल में न्याय देने से इनकार के समान है।
इसलिए ये जरूरी है कि न्यायिक व्यवस्था को ताकतवर निचले स्तर पर बनाया जाए और फिर इस संख्या को ऊपरी स्तर पर उसी अनुपात में बढ़ाया जाए। इस समय हमारे पास न्याय की कई शाखाएं हैं, जैसे अलग-अलग टैक्स ट्राइब्यूनल, औद्योगिक अदालतें, कंपनी लॉ बोर्ड, उपभोक्ता और सहकारिता अदालतें, राजस्व ट्राइब्यूनल और पारिवारिक अदालतें। इसके अलावा, कई मामलों में फास्ट ट्रैक अदालतें और विशेष अदालतों का भी गठन किया जाता है। साथ ही अदालतें लोक अदालतें भी आयोजित करती हैं ताकि दोनों पक्ष परस्पर सहमति से विवाद का हल निकाल सकें। इसके अलावा कई पंचाट भी हैं जो समझौतों और आपसी सहमति के आधार पर मामले सुलझाते हैं, लेकिन इन सबके बावजूद मुकदमों की बढ़ती संख्या पर कोई खास असर नहीं है। हालांकि ऐसा नहीं है कि मुकदमें पूरी तरह से खत्म हो ही जाएंगे, कैसी भी व्यवस्था हो कुछ मुकदमें तो रहेंगे ही, लेकिन दीवानी और फौजदारी मामलों का कई सालों तक अदालतों में लटके रहना समाज की स्थिरता और उन्नति के लिए नुकसानदेह है। अन्याय और निराशा की भावना निश्चित तौर पर अराजकता को भड़काने का काम करेगी, क्योंकि समाज की उन्नति के लिए जरूरी है कि समाज में स्थिरता और शांति रहे।
(नाज़नींन-हिन्दुस्तान समाचार फीचर सेवा)