ओली पर किसका दबाव

ओली पर किसका दबाव

काठमांडू। नेपाल में जब सकारात्मक राजनीति के संकेत मिल रहे थे और प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली भारत से मधुर संबंध बनाने का इशारा कर रहे थे, तभी पुष्प कमल दहल प्रचण्ड और उनके आकाओं ने ओली को संसद भंग करने के लिए मजबूर कर दिया। अच्छा संकेत यह है कि राष्ट्रपति विद्या देवी भंडारी ने उनका साथ दिया और संसद भंग करने की सिफारिश को स्वीकार कर लिया। इसके बावजूद भारत को अपने इस सबसे निकटतम पड़ोसी देश पर नजर रखनी पड़ेगी क्योंकि नेपाल के अराजक हालात भारत को भी प्रभावित करेंगे।

नेपाल की राष्ट्रपति विद्या देवी भंडारी ने प्रधानमंत्री के पी शर्मा ओली की सिफारिश पर 20 दिसम्बर को संसद को भंग कर दिया और अप्रैल-मई में मध्यावधि आम चुनाव कराये जाने की घोषणा की। इसी के साथ प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली के राजनीतिक भविष्य पर भी सवाल खड़े होने शुरू हो गए हैं। ओली चीन के समर्थक माने जाते हैं और बीते एक साल में उन्होंने पहले विवादित नक्शे और बाद में भगवान राम को लेकर दिए विवादित बयान से भारत के साथ संबंध बिगाड़ने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी। काठमांडू पोस्ट के मुताबिक नेपाल के राष्ट्रपति भवन द्वारा जारी एक नोटिस के अनुसार राष्ट्रपति भंडारी ने 30 अप्रैल को पहले चरण और 10 मई को दूसरे चरण का मध्यावधि चुनाव कराये जाने की घोषणा की। नोटिस के अनुसार उन्होंने नेपाल के संविधान के अनुच्छेद 76, खंड एक तथा सात, और अनुच्छेद 85 के अनुसार संसद को भंग कर दिया। इससे पूर्व प्रधानमंत्री ओली की अध्यक्षता में हुई मंत्रिमंडल की एक आपात बैठक में राष्ट्रपति से संसद की प्रतिनिधि सभा को भंग करने की सिफारिश करने का फैसला किया गया था। साल 2017 में निर्वाचित प्रतिनिधि सभा या संसद के निचले सदन में 275 सदस्य हैं। ऊपरी सदन नेशनल एसेंबली है। यह कदम ऐसे समय में उठाया गया है कि जब सत्तारूढ़ दल नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी (एनसीपी) में आंतरिक कलह चरम पर पहुंच गई थी। पार्टी के दो धड़ों के बीच महीनों से टकराव जारी है। एक धड़े का नेतृत्व 68 वर्षीय ओली तो वहीं दूसरे धड़े की अगुवाई पार्टी के कार्यकारी अध्यक्ष तथा पूर्व प्रधानमंत्री प्रचंड कर रहे हैं। ओली का भारत विरोधी नजरिया 2015 में तब शुरू हुआ जब नेपाल में संविधान के तैयार होने की कवायद हुई। ओली इसके पक्षधर थे, लेकिन भारत ने मधेसियों के अधिकारों को लेकर इसका विरोध किया। दूसरी तरफ, नेपाल में प्रधानमंत्री की रेस में आखिरी वक्त पर ओली के खिलाफ सुशील कोइराला खड़े हो गए और नेपाल में कई लोगों ने माना कि इसके पीछे भारत की रणनीति थी। हालांकि ओली ने कोइराला को 2015 के चुनाव में हराया लेकिन भारत के प्रति उनका मन बदल चुका था। इसके बाद ओली को फिर एक झटका तब लगा जब नेपाल में भूकंप की त्रासदी से ओली सरकार जूझ रही थी और उन हालात में भारत ने सीमाएं बंद कर दीं। महीनों तक नेपाल को आपूर्ति होने में मुश्किल रही। इन तमाम हालात पर नजर गड़ाए हुए चीन के पास यही मौका था और उसने दोनों हाथों से लपका भी।

चीन ने ओली के मददगार के तौर पर प्रवेश किया। मार्च 2016 में नेपाल ने चीन के साथ एक संधि पर दस्तखत किए जिससे नेपाल को शुष्क बंदरगाहों, रेल सहित चीन के बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव के तहत सड़क ट्रांसपोर्ट के जरिये चीनी इलाकों के साथ जुड़ने का सीधा रास्ता मिला। इसके बाद फिर ओली के सामने संकट खड़ा हुआ जब प्रचंड यानी पीके दहल के धड़े ने ओली सरकार के खिलाफ बगावत की। ओली ने फिर आरोप लगाया कि यह भारत के इशारे पर हुआ। खैर 2017 में ओली ने फिर जीत हासिल की और इस बार खुलकर भारत विरोधी छवि के साथ। इस तरह, ओली के रूप में नेपाल पर चीन की पकड़ मजबूत होती चली गई और भारत अपने एक मित्र राष्ट्र को गंवाता चला गया।

इस साल शुरूआती मई में नेपाल में राजनीतिक संकट था। नेपाली कम्युनिस्ट पार्टियों के वरिष्ठ नेताओं ने सार्वजनिक तौर पर ओली से इस्तीफा मांगा था। भारत चूंकि कोविड 19 से जूझने में व्यस्त था, तो उसने नेपाल के हालात पर बातचीत को टाल दिया और फिर ओली ने चीन से मदद मांगी। चीनी राजदूत हाउ यैंकी ने नेपाली नेताओं के साथ कई बैठकें कर संकट को हल किया। ओली की कुर्सी बचाने की कीमत चीन ने क्या मांगी? पहली तो यही कि चीन के खिलाफ जो अंतरराष्ट्रीय कवायद चल रही थी, उसमें नेपाल को चीन का साथ देना था। और, डीएनए की रिपोर्ट के मुताबिक राजनीतिक विश्लेषक मानते हैं कि दूसरी कीमत यह भी थी कि भारत के साथ नेपाल सीमा विवाद को हवा देकर चीन के पक्ष में खड़ा नजर आए। भारत ने भी नक्शा विवाद पर यही माना कि नेपाल ने चीन के इशारे पर यह कदम उठाया।

केपी शर्मा ओली के नेपाल का प्रधानमंत्री बनने तक का सफर उल्लेखनीय रहा है। ओली ने वामपंथी गठबंधन द्वारा संसदीय चुनाव में जीत दर्ज किए जाने के बाद 2018 में दूसरी बार सत्ता संभालने पर नेपाल में राजनीतिक स्थिरता की उम्मीद जताई थी लेकिन सत्तारूढ़ नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी के भीतर सत्ता को लेकर चले लंबे संघर्ष के बाद संसद भंग करने की राष्ट्रपति से सिफारिश कर उन्होंने सभी को आश्चर्यचकित कर दिया। ओली किशोरावस्था में ही राजनीति में आ गए थे और राजशाही का विरोध करने के लिए उन्होंने 14 साल जेल में बिताए। वह 2018 में वाम गठबंधन के संयुक्त उम्मीदवार के रूप में दूसरी बार नेपाल के प्रधानमंत्री बने थे।चीन समर्थक रुख के लिए जाने वाले 68 वर्षीय ओली ने इससे पहले 11 अक्टूबर, 2015 से तीन अगस्त, 2016 तक देश के प्रधानमंत्री के रूप में कार्य किया था। इस दौरान नेपाल के भारत के संबंध तनावपूर्ण हो गए थे, अपने पहले कार्यकाल के दौरान ओली ने नेपाल के आंतरिक मामलों में कथित हस्तक्षेप को लेकर सार्वजनिक रूप से भारत की निंदा की थी और उसपर उनकी सरकार को अस्थिर करने का आरोप लगाया था। हालांकि, उन्होंने दूसरे कार्यकाल के लिए पद संभालने से पहले देश को आर्थिक समृद्धि के रास्ते पर आगे बढ़ाने के लिए भारत के साथ एक साझेदारी बनाने का वादा किया था।

ओली के दूसरे कार्यकाल के दौरान सत्तारूढ़ दल नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी (एनसीपी) में आंतरिक कलह चरम पर पहुंच गई थी। पार्टी के दो धड़ों के बीच महीनों से टकराव जारी है।

नेपाल के पूर्वी जिले तेराथुम में 22 फरवरी, 1952 को जन्मे ओली मोहन प्रसाद और मधुमाया ओली की सबसे बड़ी संतान हैं। उनकी मां की चेचक से मृत्यु हो जाने के बाद उन्हें उनकी दादी ने पाला था, उन्होंने नौवीं कक्षा में अपनी पढ़ाई छोड़ दी थी और राजनीति में आ गए थे। हालांकि, उन्होंने बाद में जेल से कला में इंटरमीडिएट किया। उनकी पत्नी रचना शाक्य भी एक कम्युनिस्ट कार्यकर्ता हैं और पार्टी गतिविधियों के दौरान दोनों की मुलाकात हुई थी। ओली ने 1966 में राजा के प्रत्यक्ष शासन के तहत निरंकुश पंचायत प्रणाली के खिलाफ लड़ाई में शामिल होकर एक छात्र कार्यकर्ता के रूप में अपने राजनीतिक जीवन की शुरुआत की थी। (हिफी)

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