शब्दों से अनुभव परोसने वाले मुंशी प्रेमचन्द

शब्दों से अनुभव परोसने वाले मुंशी प्रेमचन्द

जन्मदिन विशेष

लखनऊ। समाज से ही साहित्य पैदा हुआ लेकिन बाद में साहित्य ने समाज को गढ़ा है। हमारा देश जब ब्रिटिश गुलामी को झेल रहा था, तब साहित्य ने हमें जागरूक किया था और आज भी साहित्य में छिपे ज्ञान को हम अपना लें तो कितनी ही समस्याएं दूर हो सकती हैं। मुंशी प्रेमचन्द भी एक ऐसे ही साहित्यकार थे जिन्होंने कहा था कि सिर्फ खाने और सोने का नाम जीवन नहीं है। वे कहते थे कि धन खोकर यदि हम अपनी आत्मा को पा सकें तो यह महंगा सौदा नहीं है। आज इसके विपरीत हो रहा है। लोग आत्मा को खोकर धन प्राप्त कर रहे हैं। ऐसे समय में प्रेमचन्द जैसे साहित्यकार और ज्यादा प्रासंगिक हो जाते हैं। उनके जन्मदिन पर हम उन्हें नमन करें और उनकी प्रेरणादायक कहानियों को एक बार फिर से पढ़ें। प्रेमचन्द जी को कहानी का सम्राट कहा गया है। आदर्श की तरफ उन्मुख यथार्थ को दर्शाने वाले उनके नायक-नायिकाएं आज भी हमें बहुत कुछ सिखा सकते हैं।

हम यह गर्व के साथ कह सकते हैं कि हिन्दी, बहुत खुबसूरत भाषाओं मे से एक है। हिन्दी ऐसी है जो, हर किसी को अपना लेती है अर्थात् सरल के लिये बहुत सरल और, कठिन के लिये बहुत कठिन बन जाती है। हिन्दी को हर दिन, एक नया रूप, एक नई पहचान देने वाले थे, उसके साहित्यकार उसके लेखक। उन्ही मे से, एक महान छवि थी मुंशी प्रेमचंद की, वे एक ऐसे प्रतिभाशाली व्यक्तित्व के धनी थे, जिसने हिन्दी विषय की काया पलट दी। वे एक ऐसे लेखक थे जो, समय के साथ बदलते गये और हिन्दी साहित्य को आधुनिक रूप प्रदान किया। मुंशी प्रेमचंद ने सरल सहज हिन्दी को, ऐसा साहित्य प्रदान किया जिसे लोग, कभी नही भूल सकते। बड़ी कठिन परिस्थियों का सामना करते हुए हिन्दी जैसे, खूबसूरत विषय में, अपनी अमिट छाप छोड़ी। मुंशी प्रेमचंद हिन्दी के लेखक ही नहीं बल्कि, एक महान साहित्यकार, नाटककार, उपन्यासकार जैसी, बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे।

प्रेमचंद का जन्म 31 जुलाई 1880 को वाराणसी जिले (उत्तर प्रदेश) के लमही गाँव में एक कायस्थ परिवार में हुआ था। उनकी माता का नाम आनन्दी देवी तथा पिता का नाम मुंशी अजायबराय था जो लमही में डाकमुंशी थे। उनका वास्तविक नाम धनपत राय श्रीवास्तव था। प्रेमचंद की आरम्भिक शिक्षा फारसी में हुई। प्रेमचंद जी एक छोटे और सामान्य परिवार से थे। उनके दादाजी गुर सहाय राय जो कि, पटवारी थे और पिता अजायब राय जोकि, पोस्ट मास्टर थे। बचपन से ही

उनका जीवन बहुत ही, संघर्षो से गुजरा था। जब प्रेमचंद जी महज आठ वर्ष की उम्र मे थे तब, एक गंभीर बीमारी में, उनकी माता जी का देहांत हो गया।

बहुत कम उम्र में, माताजी के देहांत हो जाने से, प्रेमचंद जी को, बचपन से ही माता-पिता का प्यार नहीं मिल पाया। सरकारी नौकरी के चलते, पिताजी का तबादला गोरखपुर हुआ और, कुछ समय बाद पिताजी ने दूसरा विवाह कर लिया। सौतेली माता ने कभी प्रेमचंद जी को, पूर्ण रूप से नहीं अपनाया। उनका बचपन से ही हिन्दी की तरफ, एक अलग ही लगाव था। जिसके लिये उन्होंने स्वयं प्रयास करना प्रारंभ किया, और छोटे-छोटे उपन्यास से इसकी शुरूआत की। अपनी रूचि के अनुसार, छोटे-छोटे उपन्यास पढ़ा करते थे। पढ़ने की इसी रूचि के साथ उन्होंने, एक पुस्तकों के थोक व्यापारी के यहां पर, नौकरी करना प्रारंभ कर दिया। जिससे वह अपना पूरा दिन, पुस्तक पढ़ने के अपने इस शौक को भी पूरा करते रहे। प्रेमचंद जी बहुत ही सरल और सहज स्वभाव के, दयालु प्रवृत्ति के थे। कभी किसी से बिना बात बहस नहीं करते थे, दूसरों की मदद के लिये सदा तत्पर रहते थे। ईश्वर के प्रति अपार श्रद्धा रखते थे। घर की तंगी को दूर करने के लिये, सबसे प्रारंभ में एक वकील के यहां, पांच रुपये मासिक वेतन पर नौकरी की। धीरे-धीरे उन्होंने खुद को हर विषय मे पारंगत किया, जिसका फायदा उन्हें आगे जाकर एक अच्छी नौकरी के रूप मे मिला और एक मिशनरी विद्यालय के प्रधानाचार्य के रूप में, नियुक्त किये गये। हर तरह का संघर्ष उन्होंने, हँसते-हँसते झेला और अंत में, 8 अक्टूबर 1936 को अंतिम सास ली।

प्रेमचंद जी की प्रारम्भिक शिक्षा, सात साल की उम्र से, अपने ही गाँव लमही के, एक छोटे से मदरसा से शुरू हुई थी। मदरसा में रहकर, उन्होंने हिन्दी के साथ उर्दू व थोडा बहुत अंग्रेजी भाषा का भी ज्ञान प्राप्त किया। ऐसे करते हुए धीरे-धीरे स्वयं के, बल-बूते पर उन्होंने अपनी शिक्षा को आगे बढाया, और आगे स्नातक की पढ़ाई के लिये, बनारस के एक कालेज में दाखिला लिया। पैसों की तंगी के चलते अपनी पढ़ाई बीच में ही छोड़नी पड़ी। बड़ी कठिनाईयों से जैसे-तैसे मैट्रिक पास की थी। परन्तु उन्होंने जीवन के किसी पड़ाव पर हार नहीं मानी, और 1919 मे फिर से अध्ययन कर बीए की डिग्री प्राप्त की।

प्रेमचंद जी बचपन से, किस्मत से लड़ रहे थे। कभी परिवार का लाड-प्यार और सुख ठीक से प्राप्त नहीं हुआ। पुराने रिवाजों के चलते, पिताजी के दबाव में आकर, बहुत ही कम उम्र में पन्द्रह वर्ष की उम्र में उनका विवाह हो गया। प्रेमचंद जी का यह विवाह उनकी मर्जी के बिना, उनसे बिना पूछे एक ऐसी कन्या से हुआ जोकि, स्वभाव में बहुत ही झगड़ालू प्रवति की और बदसूरत सी थी। पिताजी ने सिर्फ अमीर परिवार की कन्या को देखकर, विवाह कर दिया। थोड़े समय में, पिताजी की भी मृत्यु हो गयी। पूरा भार प्रेमचंद जी पर आ गया। एक समय ऐसा आया कि, उनको नौकरी के बाद भी जरुरत के समय अपनी बहुमूल्य वस्तुओ को बेचकर, घर चलाना पड़ा। बहुत कम उम्र मे गृहस्थी का पूरा बोझ अकेले पर आ गया। उसके चलते प्रेमचंद की प्रथम पत्नी से, उनकी बिल्कुल नहीं जमती थी जिसके चलते उन्होंने उसे तलाक दे दिया और कुछ समय गुजर जाने के बाद, अपनी पसंद से दूसरा विवाह, लगभग पच्चीस साल की उम्र में एक विधवा स्त्री से किया। प्रेमचंद जी का दूसरा विवाह बहुत ही संपन्न रहा। उन्हें इसके बाद, दिनों दिन तरक्की मिलती गई।

हिन्दी उपन्यास के क्षेत्र में प्रेमचन्द के आगमन से एक नयी क्रांति का सूत्रपात हुआ इस युग के उपन्यासकारों ने जीवन के यथार्थ को प्रस्तुत किया। इस युग का प्रारम्भ प्रेमचन्द के सेवा सदन उपन्यास से हुआ जिसे 1918 में लिखा गया था। प्रेमचन्द जी ने पहले आदर्शवादी उपन्यास ही लिखे लेकिेन बाद में यथार्थवादी उपन्यास लिखने लगे। उन्होंने अपनी रचनाओं में सामाजिक समस्याओं को विशेष रूप से स्थान दिया है। प्रेमचन्द के उपन्यास किसी एक विशेष वर्ग तक ही सीमित नहीं वरन समाज के सभी वर्गों तक फैले हैं। दहेज प्रथा, वृद्धावस्था में विवाह, शंका और अविश्वास के दुप्परिणाम और गबन जैसे उपन्यास में आभूषणों की लालसा को प्रभावशाली ढंग से प्रस्तुत किया गया है। गोदान में ग्रामीण जीवन और किसानों की दुर्दशा को दिखाया गया है। पात्रों के नाम भी उसी अनुरूप में रखे गये हैं। गोदान का होरी राम अपने दोनों बैलों को सानी-पानी देकर अपनी पत्नी धनिया से कहता है- गोबर को ऊंख (गन्ना) गोड़ने भेज देना। गोबर उसका बेटा है। इस तरह की रचनाएं पुस्तक को अंत तक पढ़ने की इच्छा जगाती हैं। (हिफी)

(मनीषा स्वामी कपूर-हिन्दुस्तान समाचार फीचर सेवा)

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