राजेन्द्र नाथ लाहिड़ी के 93 वें शहीद दिवस पर विशेष...

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राजेन्द्र नाथ लाहिड़ी भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में शहीद हुआ ऐसा नाम है, जिसकों भुलाना उन तमाम शहीदों का अपमान होगा, जिन्होंने देश को आजाद कराने के नाम पर हंसते-हंसते फांसी का फंदा चूम लिया था। इसके विपरीत ये भी सच्चाई है कि बीते दिनों में सरकारों का रवैया इन शहीदों के प्रति उतना उत्साहवर्धक नहीं रहा, जितना होना चाहिए था। अब जबकि प्रदेश और देश की वर्तमान सरकारें इतिहास को सही करने का दम भर रही हैं, उनसे उम्मीद किया जाना उचित ही होगा कि आजादी के इन दीवानों की ओर पूरे मन से निगाह डाले, जिससे नामचीन और गुमनामी के अंधेरों में गुम आजादी के दीवानों के साथ न्याय हो सके।



वर्तमान में बांग्लादेश के पबना जिले के अन्तर्गत मड़याँ (मोहनपुर) गाँव में 29 जून 1901 को क्षिति मोहन लाहिड़ी के पुत्ररूप में जन्में राजेन्द्रनाथ लाहिड़ी की माता का नाम बसन्त कुमारी था। उनके जन्म के समय पिता क्रान्तिकारी क्षिति मोहन लाहिड़ी व बड़े भाई बंगाल में चल रही अनुशीलन दल की गुप्त गतिविधियों में योगदान देने के आरोप में कैद थे।

राजेन्द्रनाथ लाहिड़ी को देश-प्रेम और निर्भीकता की भावना विरासत में मिली थी। दिल में राष्ट्र-प्रेम की चिन्गारी लेकर मात्र नौ वर्ष की आयु में ही वे बंगाल से अपने मामा के घर वाराणसी पहुँचे। वाराणसी में ही उनकी शिक्षा दीक्षा सम्पन्न हुई। राजेन्द्रनाथ काशी में पढाई करने गये थे, किन्तु वहाँ पहले से ही निवास कर रहे क्रान्तिकारी शचींद्रनाथ सान्याल के सम्पर्क में आ गये। राजेन्द्र की फौलादी दृढ़ता, देश-प्रेम और आजादी के प्रति दीवानगी के गुणों को पहचान कर शचीन दा ने उन्हें अपने साथ रखकर बनारस से निकलने वाली पत्रिका बंग वाणी के सम्पादन का दायित्व तो दिया ही, अनुशीलन समिति की वाराणसी शाखा के सशस्त्र विभाग का प्रभार भी सौंप दिया। उनकी कार्य कुशलता को देखते हुए उन्हें हिन्दुस्तान रिपब्लिकन ऐसोसिएशन की गुप्त बैठकों में आमन्त्रित भी किया जाने लगा।

क्रान्तिकारियों द्वारा चलाये जा रहे स्वतन्त्रता-आन्दोलन को गति देने के लिये धन की तत्काल व्यवस्था को देखते हुए शाहजहाँपुर में दल के सामरिक विभाग के प्रमुख पण्डित राम प्रसाद बिस्मिल के निवास पर हुई बैठक में राजेन्द्रनाथ लाहिड़ी भी सम्मिलित हुए, जिसमें सभी क्रान्तिकारियों ने एकमत से अंग्रेजी सरकार का खजाना लूटने की योजना को अन्तिम रूप दिया था। इस योजना में लाहिड़ी का अहम किरदार था, क्योंकि उन्होंने ही अशफाक उल्ला खाँ के ट्रेन न लूटने के प्रस्ताव को सिरे से खारिज कर दिया था। इस योजना को अंजाम देने के लिये लाहिड़ी ने काकोरी से ट्रेन छूटते ही जंजीर खींच कर उसे रोक लिया और 9 अगस्त 1925 की शाम सहारनपुर से चलकर लखनऊ पहुँचने वाली आठ डाउन ट्रेन पर क्रान्तिकारी पण्डित राम प्रसाद बिस्मिल ने अशफाक उल्ला खाँ और चन्द्रशेखर आजाद व 6 अन्य सहयोगियों की मदद से धावा बोल दिया। राजेन्द्रनाथ लाहिड़ी, अशफाक उल्ला खां, रामप्रसाद बिस्मिल, चन्द्रशेखर आजाद, ठाकुर रोशन सिंह, सचिन्द्र बख्शी, केशव चक्रवर्ती, बनवारी लाल, मुकुन्द लाल, मन्मथ लाल गुप्त आदि कुल 10 नवयुवकों ने मिलकर ट्रेन में जा रहा सरकारी खजाना लूट लिया था। मजे की बात यह कि उसी ट्रेन में सफर कर रहे अंग्रेज सैनिकों तक की हिम्मत न हुई कि वे मुकाबला करने को आगे आते। मिशन को सफल बनाने के लिए सभी ने अपने अपने नाम को बदल लिया था।



काकोरी काण्ड के बाद बिस्मिल ने लाहिड़ी को बम बनाने का प्रशिक्षण लेने बंगाल भेज दिया। राजेन्द्र बाबू कलकत्ता गये और वहाँ से कुछ दूर स्थित दक्षिणेश्वर में उन्होंने बम बनाने का सामान इकट्ठा किया। अभी वे पूरी तरह से प्रशिक्षित भी न हो पाये थे कि किसी साथी की असावधानी से एक बम फट गया और बम का धमाका सुनकर पुलिस आ गयी। कुल 9 साथियों के साथ राजेन्द्र भी गिरफ्तार हो गये। उन पर मुकदमा दायर किया और 10 वर्ष की सजा हुई जो अपील करने पर 5 वर्ष कर दी गयी। राजेन्द्र लाहिड़ी को काकोरी काण्ड में शामिल करने के लिये बंगाल से लखनऊ लाया गया और राजेन्द्रनाथ लाहिड़ी, पण्डित राम प्रसाद बिस्मिल, अशफाक उल्ला खाँ तथा ठाकुर रोशन सिंह एक साथ चार व्यक्तियों को फाँसी की सजा सुना दी गयी। लाहिड़ी को अन्य क्रान्तिकारियों से दो दिन पूर्व 17 दिसम्बर 1927 को ही फाँसी दे दी गयी। आजादी के इस दीवाने ने हँसते-हँसते फाँसी का फन्दा चूमने से पहले वंदे मातरम् की हुंकार भरते हुए कहा था कि मैं मर नहीं रहा हूँ, बल्कि स्वतन्त्र भारत में पुनर्जन्म लेने जा रहा हूँ।

आज ही के दिन अमर शहीद राजेन्द्र नाथ लाहिड़ी को जिला कारागार गोण्डा में काकोरी काण्ड के अमर शहीद 27 वर्षीये नौजवान राजेन्द्र नाथ लाहिड़ी को 1927 में फांसी दी गयी थी तब से आज तक इस जेल में किसी को फांसी नहीं दी गयी। आज के दिन प्रत्येक वर्ष यहां शहीद मेले का आयोजन किया जाता है। समस्त घटनाओं का उल्लेख भी गोण्डा जिला कारागार के फाँसीगृह में स्थापित लाहिड़ी जीवनवृत्त शिलापट्ट पर अंकित है। धर्म सम्प्रदाय से ऊपर उठकर लाहिड़ी की अन्तिम इच्छा का सम्मान करने की यह परम्परा आज तक कायम है। लाहिड़ी की क्रान्तिकारी महानायक छवि को पुष्ट करती कविता शहीद लाहिड़ी के प्रति भी जिला कारागार के फाँसीगृह में स्थापित एक अन्य शिलापट्ट पर अंकित है।

राजेन्द्र का स्वाभाव भले ही क्रांतिकारी था पर उनकी रूचि साहित्य में भी थी। कहीं न कहीं वे भी जानते थे कि शिक्षा ही देश का उद्धार कर सकती है। उन्होंने अपने भाइयों के साथ मिलकर अपनी माँ बसंता कुमारी के नाम से एक पारिवारिक पुस्तकालय भी शुरू किया। राजेन्द्र नियमित रूप से लेख लिखते थे और साथ ही, इनका लगातार प्रयास रहता था कि क्रांतिकारी दल का प्रत्येक सदस्य अपने विचारों को लेख के रूप में दर्ज करे। लाहिड़ी ही बनारस के क्रांतिकारियों के हस्तलिखित पत्र अग्रदूत के प्रवर्तक थे।

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