आज के ही दिन 1969 को बागपत के डौला में जन्में थे जलपुरूष राजेन्द्र सिंह

आज के ही दिन 1969 को बागपत के डौला में जन्में थे जलपुरूष राजेन्द्र सिंह
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प्रख्यात् पर्यावरणविद् एवं देश के प्रथम जल पुरुष की उपाधि प्राप्त करने वाले राजेन्द्र का जन्म आज ही के दिन 6 अगस्त 1959 को पश्चिमी उत्तर प्रदेश के बागपत जनपद स्थित डौला गाँव में हुआ था। उन्हें जल संरक्षण के क्षेत्र में कार्य करने के लिए जाना जाता हैं। वर्तमान में वे तरुण भारत संघ के नाम के गैर सरकारी संगठन के मुखिया है और जल संरक्षण के लिए प्रयासरत हैं। 2015 में उन्होंने स्टॉकहोम जल पुरस्कार जीता था, जिसे पानी बचाने के लिए नोबेल पुरस्कार के रूप में भी जाना जाता है। इससे पूर्व उन्हें सामुदायिक नेतृत्व के लिए 2011 का रेमन मैगसेसे पुरस्कार भी प्रदान किया गया था। राजेन्द्र सिंह सरकार की गलत नीतियों पर भी आक्रमक रहे हैं।


बता दें कि हाई स्कूल पास करने के बाद राजेन्द्र सिंह ने भारतीय ऋषिकुल आयुर्वेदिक महाविद्यालय से आयुर्विज्ञान में डिग्री हासिल की थी। इसी दौरान वे जयप्रकाश नारायण से प्रभावित होकर छात्र युवा संघर्ष वाहिनी के साथ जुड़ गए, इसके लिए उन्होंने एक कॉलेज में प्रवेश भी ले लिया था। 1981 में उन्होंने नौकरी छोड़कर मात्र 23 हजार रुपए के बल पर पानी की समस्या का हल निकालने के लिए निकल पड़े। इस काम में उनके साथी नरेन्द्र, सतेन्द्र, केदार तथा हनुमान जुडे और उन्होंने 1978 में जयपुर यूनिवर्सिटी द्वारा बनाई गई मृतप्रायः संस्था तरुण भारत संघ को पुनर्जीवित किया, जिसे बाद में एनजीओ का रूप दे दिया गया था। साल 1980 में राजेन्द्र सिंह ने नैशनल सर्विस वालिंटियर फॉर एजुकेशन के पद नियुक्त होकर राजस्थान से सरकारी नौकरी की शुरूआत की। वहाँ इन्हें दौसा जिले में प्रौढ़ शिक्षा का प्रोजेक्ट दिया गया। उस समय वहां पानी का संकट लोगों को हलकान कर रहा था, इसी जल संकट ने उन्हें सोचने पर मजबूर कर दिया और वे इस जल संकट के खिलाफ उठ खडे हुए और गाँव वालों से विचार-विमर्श करके तथा देश के अन्य इलाकों की स्थिति से जानकारी लेकर यह हल सामने आया कि कुएँ तथा जोहड़ों को फिर से जिंदा करने से जल संकट कम किया जा सकता है। उस समय एक वृद्ध ग्रामीण की सीख उनके दिल को छू गयी कि कुआँ खोदने के लिए कोई इंजीनियर नहीं चाहिए, केवल हौसले की जरूरत है। बस उन्होंने इस काम के लिए मंगूलाल पटेल को साथ लिया और काम की शुरुआत के लिए गोपालपुरा गाँव को चुना।


उन्होंने वर्षा का पानी धरती को सौंपने के लिए बाड़ बनाकर जमीन पर पानी को रोका। पहला जोहड़ बनाने के लिए उन्होने मानोटा कोयाला को चुना और इस काम में गांव के हर घर के लिए जिम्मेदारी तय की गई। 6 मार्च, 1987 को मानोटा कोयाला जोहड़ का काम शुरू हुआ और अपने उद्यम से गाँव वालों ने देखा कि जोहड़ में पानी आ गया है। पहले जोहड़ के काम की सफलता से गाँव में उत्साह का संचार हुआ। उसके बाद वर्षों से सूखी पड़ी अरवारी नदी फिर से जिन्दा हो गयी और उसमें पानी का बहाव कायम हो गया। इससे उत्साहित इस क्रांति का असर दूसरे दूर के गाँवों तक भी पहुँचा। हमीरपुर गाँव में जब्बर सागर की धारा जीवित हुई और आज उसमें नावें चलती हैं तथा मछली पालन होता है।

राजेंद्र सिंह की राह आसान नहीं थी। एक बार उन्हें राजस्थान के किशोरीपुर गाँव वालों ने इन्हें आतंकवादी समझकर पकड़ लिया था, क्योंकि कुछ दिन पहले रेडियो से यह खबर आई थी कि कुछ आतंकबादी पंजाब से राजस्थान में घुसे हैं। बाद किसी की पहचान पर ये बामुश्किल छूटे थे।

राजेन्द्र सिंह केवल राजस्थान तक ही सीमित नहीं रहे, बल्कि उन्होंने जल संरक्षण पर जनजागरूकता के लिए यूपी मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र सहित कई राज्यों में जनजागरण रैलियां व अन्य कार्यक्रम आयोजित किये हैं। उन्होंने एक बार खतौली के गोल्डन हार्ट एकेडमी में भी स्कूल प्रबन्धक अकील अहमद व प्रबन्ध निदेशक रूहामा अहमद के साथ जल बचाने के लिए एक कार्यक्रम में हिस्सा लिया था।



राजेंद्र सिंह को उनके प्रयासों के लिए वर्ष 1998 में द वीक पत्रिका ने मैन ऑफ द ईयर के रूप में नामित किया था। वर्ष 2005 में ग्राम विकास के लिए विज्ञान और प्रौद्योगिकी के अनुप्रयोग में योगदान देने के लिए राजेन्द्र सिंह को भारत के सबसे प्रतिष्ठित जमनालाल बजाज पुरस्कार से नवाजा गया। इसके बाद उन्हें सामुदायिक नेतृत्व के लिए सन 2011 में एशिया का सबसे प्रतिष्ठित पुरस्कार रैमन मैग्सेसे से नवाजा गया। वर्ष 2015 में राजेंद्र सिंह को पानी का नोबेल माने जाने वाले पुरस्कार स्टॉकहोम वाटर प्राइज से सम्मानित किया गया। राजेंद्र सिंह को वर्ष 2016 में ब्रिटेन से अहिंसा पुरस्कार भी प्राप्त हो चुका है।

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