आज के ही दिन 1885 में रावलपिण्डी के एक गांव में जन्मे थे कट्टर सिक्ख नेता मास्टर तारा सिंह

आज के ही दिन 1885 में रावलपिण्डी के एक गांव में जन्मे थे कट्टर सिक्ख नेता मास्टर तारा सिंह
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प्रथम विश्वयुद्ध के समय सिक्खों को सेना में भर्ती होने के लिए प्रेरित करने वाले जिस सिक्ख नेता से प्रभावित होकर ब्रिटिश सरकार ने सिक्खों को भी मुस्लिमों की भांति ही प्रथक प्रतिनिधित्व प्रदान किया था, उस सिक्ख नेता मास्टर तारा सिंह का जन्म 24 जून 1885 ई. को पंजाब के रावलपिण्डी जिला स्थित हरयाल गांव में हुआ था। इनके पिता का नाम बख्शी गोपीचंद तथा माता मुल्लन देवी थीं। तारा सिंह का बचपन का नाम नानक चंद था। उनके चार भाई तथा एक बहन थी। पिता बख्शी गोपीचंद गांव के पटवारी थे। मास्टर तारा सिंह ने विभिन्न आंदोलनों में अनेक बार जेल की यात्राएं कीं। वे पत्रकार और लेखक भी थे। तारा सिंह नरोत्तम पंजाबी भाषा के विद्वान थे। उन्होंने सिख धर्मशास्त्र एवं सिख साहित्य में बहुत योगदान दिया। उन्होंने हेमकुंट की खोज की और कनखल के निर्मल पंचायती अखाड़ा के श्री महन्त बने। वे सिखों के निर्मल सम्प्रदाय के प्रवर्तक थे। मास्टर तारासिंह कट्टर सिक्ख नेता थे। उन्होंने अंग्रेज सरकार की सहायता से सिक्खपंथ को हिंदू समाज से पृथक करने के सरदार उज्जवल सिंह मजीठिया के प्रयास में बहुत योगदान दिया था। महात्मा गांधी भी मास्टर तारा सिंह की बेहद इज्जत करते थे, लेकिन कायदे आजम के नाम से विख्यात् मौहम्मद अली जिन्ना उनसे बहुत डरते थे।

तारा सिंह ने 17 वर्ष की उम्र में सिक्ख धर्म की दीक्षा लेने के बाद अपना पैतृक निवास छोड़कर गुरुद्वारे में रहने लगे। उनकी शिक्षा रावलपिण्डी और अमृतसर में हुई थी। लाहौर से तारा सिंह ने अध्यापन कार्य का प्रशिक्षण लिया और लायलपुर के हाईस्कूल में 15 रुपये मासिक वेतन पर प्रधान अध्यापक का काम करने लगे। यहीं से उनके नाम के आगे मास्टर जुड़ गया ओर वे मास्टर तारा सिंह के नाम से प्रख्यात् होने लगे। प्रथम विश्वयुद्ध के समय मास्टर तारासिंह ने राजनीति में प्रवेश किया और सिक्खों को अधिक से अधिक संख्या में सेना में भर्ती होने की प्रेरणा दी। इसी का परिणाम था कि युद्ध की समाप्ति पर ब्रिटिश सरकार ने 1919 ई. के इण्डिया एक्ट में मुसलमानों की भांति सिक्खों को भी पृथक सांप्रदायिक प्रतिनिधित्व प्रदान किया था। इसके बाद तारा सिंह गुरुद्वारों के प्रबंध के ओर मुड़े। 1925 में गुरुद्वारों के प्रबंध का नया एक्ट बना। वे कई बार शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंध कमेटी के मंत्री और अध्यक्ष रहे।

1921 में जब ननकाना साहिब में अधिकारों को लेकर महंतों से जंग हुई तब बहुत सारे निहत्थे सिख मारे गये, तब तारा सिंह ने प्रण लिया कि अब सारी जिंदगी सिख समुदाय के लिये समर्पित रहेगी। वर्ष 1928 ई. की नेहरू कमेटी का तारा सिंह ने विरोध किया, पर कांग्रेस के पूर्ण स्वतंत्रता के प्रस्ताव के वे समर्थक थे। महात्मा गाँधी के श्सविनय अवज्ञा आन्दोलन का भी उन्होंने समर्थन किया। 1932 के ब्रिटिश सरकार के साम्प्रदायिक निर्णय के वे विरोधी थे। द्वितीय विश्वयुद्ध के समय क्रिप्स प्रस्ताव का भी उन्होंने विरोध किया। युद्ध के बाद शिमला सम्मेलन में मास्टर तारा सिंह का कहना था कि भारत को अविभाज्य रहना चाहिए, परंतु यदि पाकिस्तान की मांग स्वीकार की जाती है तो सिक्खों का भी एक स्वतंत्र राज्य बनाया जाए। उन्होंने स्वतंत्रता के बाद पृथक पंजाबी भाषी राज्य बनाने के लिए आंदोलन किया। 1952 के प्रथम निर्वाचन के समय वे कांग्रेस कार्य समिति से पंजाबी भाषी प्रदेश के निर्माण और पंजाबी विश्वविद्यालय की स्थापना का निर्णय कराने में सफल हुए। इसके लिए उन्होंने 15 अगस्त 1961 से आमरण अनशन किया था जो 43 दिन तक चला था। सन् 1952 के महानिर्वाचन में कांग्रेस से चुनाव समझौते के समय वे कांग्रेस कार्यसमिति द्वारा पृथक् पंजाबी भाषी प्रदेश के निर्माण तथा पंजाबी विश्वविद्यालय की स्थापना का निर्णय कराने में सफल हुए। 22 नवंबर 1967 को 83 वर्ष की उम्र में चंडीगढ़ के एक अस्पताल में उनका निधन हुआ।

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