आज ही के दिन 1757 में बंगाल के नवाब व अंग्रेजों के बीच हुआ था प्लासी का युद्ध

आज ही के दिन 1757 में बंगाल के नवाब व अंग्रेजों के बीच हुआ था प्लासी का युद्ध
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आज ही के दिन के नाम इतिहास में प्लासी का युद्ध, वास्तव में युद्ध न होकर एक छोटी सी सैनिक झड़प थी, लेकिन भारत के इतिहास में इस युद्ध का महत्व इसके पश्चात् होने वाली घटनाओं के कारण है। निःसन्देह भारत में प्लासी के युद्ध के बाद दासता के उस काल की शुरुआत हुई, जिसमें इसका आर्थिक एवं नैतिक शोषण अधिक हुआ। राजनीतिक रूप से भी ईस्ट इंडिया कंपनी की स्थिति मजबूत हुई। युद्ध को भारत के लिए बहुत दुर्भाग्यपूर्ण माना जाता है। इस युद्ध से ही भारत की दासता की कहानी शुरू होती है। प्लासी का युद्ध वास्तव में कोई युद्ध नहीं था यह एक षडयंत्र और विश्वासघात का प्रदर्शन मात्र था। प्रसिद्ध इतिहासकार 'पानीवकर' के अनुसार प्लासी का युद्ध नहीं, परन्तु इसका परिणाम काफी महत्वपूर्ण निकला। इसलिए इसे विश्व के निर्णायक युद्धों में स्थान उपलब्ध है। क्योंकि इसी के द्वारा बंगाल में ब्रिटिश साम्राज्य की नींव डाली गई। क्लाइव ने इस युद्ध को क्रांति की संज्ञा दी है। वास्तव में यह एक क्रांति थी ,क्योंकि इसके द्वारा भारतीय इतिहास की धारा में महान परिवर्तन आ गया और एक व्यापारिक संस्था ने बंगाल की राजनैतिक बागडोर अपने हाथों में ले ली थी। यह समय था जब मुर्शिदाबाद, बंगाल की राजधानी थी।



प्लासी का युद्ध 23 जून, 1757 ई. को अंग्रेज और बंगाल के नवाब सिराजुद्दौला के बीच मुर्शिदाबाद के दक्षिण में 22 मील दूर नदिया जिले में भागीरथी नदी के किनारे प्लासी नामक गाँव में हुआ थां। सिराजुद्दौला की सेना में जहाँ एक ओर मीरमदान, मोहनलाल जैसे देशभक्त थे, तो वहीं दूसरी ओर मीरजाफर जैसे कुत्सित विचारों वाले धोखेबाज भी थे। युद्ध 23 जून को प्रातः 9 बजे प्रारम्भ हुआ। मीरजाफर एवं रायदुर्लभ अपनी सेनाओं के साथ निष्क्रिय रहे और रॉबर्ट क्लाइव बिना युद्ध किये ही विजयी हुआ। इस युद्ध को कम्पनी की जीत नही मान सकते, क्योंकि युद्ध से पूर्व ही नवाब के तीन सेनानायक, उसके दरबारी, तथा राज्य के अमीर सेठ जगत सेठ आदि से कलाइव ने षडंयत्र कर लिया था। नवाब की तो पूरी सेना ने युद्ध मे भाग भी नही लिया था युद्ध के फौरन बाद मीर जाफर के पुत्र मीरन ने नवाब की हत्या कर दी थी। अंग्रेजों ने मीरजाफर को बंगाल का नवाब बना दिया। इतिहासकार बताते हैं कि यह एक सौदा था, जिसमें बंगाल के धनी सेठों तथा मीरजाफर ने नवाब को अंग्रेजों के हाथों बेच डाला था। इतिहास में मीरजाफर का नाम गद्दारों के सरताज के रूप में जाना जाता है। आज भी जब भी किसी को गद्दार की संज्ञा दी जाती है, तो उसे मीरजाफर ही कहा जाता है।

इस युद्ध से कम्पनी को बहुत लाभ हुआ वो आई तो व्यापार हेतु थी, किंतु बन गई राजा। इस युद्ध से प्राप्त संसाधनो का प्रयोग कर कम्पनी ने फ्रांस की कम्पनी को कर्नाटक के तीसरे और अन्तिम युद्ध मे निर्णायक रूप से हरा दिया था। इस युद्ध के बाद बेदरा के युद्ध मे कम्पनी ने ड्च कम्पनी को हराया था। इस युद्ध की जानकारी लन्दन के इंडिया हाउस लाइब्ररी में उपलब्ध है जो बहुत बड़ी लाइब्ररी है और वहां भारत की गुलामी के समय के 20 हजार दस्तावेज उपलब्ध है। वहां उपलब्ध दस्तावेज के हिसाब से अंग्रेजों के पास प्लासी के युद्ध के समय मात्र 300 सिपाही थे और सिराजुदौला के पास 18 हजार सिपाही।

बंगाल अंग्रेजों के अधीन हो गया और फिर कभी स्वतंत्र न हो सका। नया नवाब मीरजाफर अपनी रक्षा तथा पद के लिए अंग्रेजों पर निर्भर था। प्लासी के युद्ध के बाद बंगाल में ल्यूक स्क्राफ्ट्रन को नवाब के दरबार में अंग्रेज रेजिडेंट नियुक्त किया गया। मीरजाफर रोबर्ट क्लाइव की कठपुतली के रूप में जब तक अंग्रेजों की महत्वाकांक्षा को पूरा कर सकने में समर्थ था, तब तक पद पर बना रहा। खुद को बंगाल का नवाब बनाये जाने के लिए उसने अंग्रेजों को 24 परगनों की जमींदारी से पुरस्कृत किया और क्लाइव को 234,000 पाउंड की निजी भेंट दीं थी। इसके साथ ही 150 लाख रुपये, बंगाल की समस्त फ्राँसीसी बस्तियाँ, अंग्रेज पदाधिकारियों तथा व्यापारियों को निजी व्यापार पर कोई चुंगी से मुक्ति भी दी गयी।

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