‘जमानत नियम, जेल अपवाद, UAPA मामलों में भी किया जा सकता है लागू: SC

‘जमानत नियम, जेल अपवाद, UAPA  मामलों में भी किया जा सकता है लागू: SC
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नयी दिल्ली। उच्चतम न्यायालय ने मंगलवार को कहा कि अगर कानून में शर्तें पूरी होती हैं तो गैरकानूनी गतिविधि (रोकथाम) अधिनियम (यूएपीए) के मामले में भी जमानत दी जा सकती है।

न्यायमूर्ति अभय एस ओका और न्यायमूर्ति ऑगस्टीन जॉर्ज मसीह की पीठ ने कहा कि ऐसे मामलों में अदालतों को जमानत देने में कोई हिचकिचाहट नहीं होनी चाहिए, भले ही अभियोजन पक्ष के आरोप बहुत गंभीर क्यों न हों। पीठ ने कहा,‘“जमानत नियम है और जेल अपवाद’ एक स्थापित कानून है।”

शीर्ष अदालत ने कहा कि अपीलकर्ता जलालुद्दीन खान के मामले जैसे मामलों में भी जहां संबंधित कानूनों में जमानत देने के लिए कठोर शर्तें हैं, नियम केवल संशोधन के साथ सही है कि अगर कानून में शर्तें पूरी होती हैं तो जमानत दी जा सकती है।

पीठ ने कहा कि यह नियम गैरकानूनी गतिविधि (रोकथाम) अधिनियम के तहत दर्ज मामलों में लागू किया जा सकता है।

शीर्ष अदालत ने गैरकानूनी गतिविधि रोकथाम अधिनियम के तहत गिरफ्तार पॉपुलर फ्रंट ऑफ इंडिया के कथित सदस्य एक सेवानिवृत्त पुलिस कांस्टेबल को जमानत देते हुए कहा कि आरोप पत्र में यह आरोप भी नहीं है कि वह किसी आतंकवादी संगठन का सदस्य था।

अपीलकर्ता खान को पटना में उनकी पत्नी के नाम पर पंजीकृत उनके घर पर छापेमारी के एक दिन बाद 12 जुलाई 2022 को गिरफ्तार किया गया था। घर का हिस्सा कथित तौर पर सह-आरोपी को किराए पर दिया गया था। पीएफआई से संबंधित कुछ आपत्तिजनक सामग्री भी जब्त की गई थी।

आरोप है कि धर्म के खिलाफ कथित तौर पर अपमानजनक टिप्पणी करने के मामले में निलंबित भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) सदस्य नुपुर शर्मा सहित चयनित लक्ष्यों पर हमला करने और उन्हें मारने के निर्देश दिए गए थे। यह निर्देश एक बैठक में प्रशिक्षित पीएफआई सदस्यों को देने के आरोप हैंं।

शीर्ष अदालत ने कहा कि विशेष अदालत और उच्च न्यायालय ने आरोप पत्र में तथ्यों पर निष्पक्ष रूप से विचार नहीं किया। शायद पीएफआई की गतिविधियों पर अधिक ध्यान दिया गया था।

पीठ ने कहा,“आरोप पत्र में धारा 2(एम) के अर्थ के तहत आतंकवादी संगठन का नाम नहीं बताया गया है, जिसका अपीलकर्ता सदस्य था। हम पाते हैं कि पीएफआई एक आतंकवादी संगठन नहीं है, जैसा कि पहली अनुसूची से स्पष्ट है।”

शीर्ष अदालत ने यह भी कहा कि नियम का यह भी अर्थ है कि एक बार जमानत देने का मामला बन जाने के बाद अदालत जमानत देने से इनकार नहीं कर सकती।

पीठ ने कहा,“अगर अदालतें योग्य मामलों में जमानत देने से इनकार करना शुरू कर देती हैं, तो यह हमारे संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत गारंटीकृत अधिकारों का उल्लंघन होगा।”

वार्ता

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