50 सालों के बाद भी भारतीय फिल्मों के महाकाव्य के तौर पर जानी जाती है..

मुख्यधारा में बनने वाली हिंदी फिल्मों के ‘व्याकरण’ को एक नया ही रूप दे दिया।;

Update: 2025-08-16 04:11 GMT

मुंबई, भारतीय सिनेमा के इतिहास की सबसे चर्चित और कई मामलों में मील का पत्थर कहलाने वाली रमेश सिप्पी की फिल्म ‘शोले’ (1975) ने शुक्रवार को अपनी रिलीज़ के 50 साल पूरे कर लिये। यह फिल्म एक ऐसा ‘महाकाव्य’ रही, जिसने मुख्यधारा में बनने वाली हिंदी फिल्मों के ‘व्याकरण’ को एक नया ही रूप दे दिया।

जी.पी. सिप्पी के सहयोग से निर्मित और सलीम-जावेद की कलम से लिखित इस फिल्म ने ‘बुच कैसिडी एंड द सनडान्स किड’ और ‘वन्स अपॉन अ टाइम इन द वेस्ट’ जैसी हॉलीवुड वेस्टर्न फिल्मों के साथ-साथ अकीरा कुरोसावा की ‘सेवन समुराई’ से प्रेरणा ली।

इस मिश्रण ने उस फिल्म को जन्म दिया, जिसे बाद में आलोचकों ने ‘करी वेस्टर्न’ का नाम दिया। यह एक ‘डकैत’ ड्रामा थी, जिसमें मसाला मनोरंजन और अपने समय में अभूतपूर्व सिनेमाई आकर्षण था।

अमेरिकी फिल्मों की बराबरी करने के लिए ‘शोले’ भारत की पहली 70 मिमी ‘स्टीरियोफोनिक’ ध्वनि वाली फिल्म बनने वाली थी, लेकिन इसमें लगने वाले खर्च के कारण इसे 35 मिमी फिल्म पर शूट किया गया और फिर 70 मिमी वाइडस्क्रीन प्रारूप में परिवर्तित किया गया।

दो साल से भी ज़्यादा समय तक कलाकारों और अन्य कर्मियों ने कर्नाटक के रामनगर की भीषण गर्मी और कठोर चट्टानी परिस्थितियों को झेलते हुए एक ऐसी दुनिया का निर्माण किया, जहां धैर्य और भव्यता का संगम था।

इसकी कथावस्तु के केन्द्र में वीरू (धर्मेन्द्र) और जय (अमिताभ बच्चन) की कहानी है । दो बेअदब छुटभैये अपराधी, जिन्हें अदम्य ठाकुर बलदेव सिंह या ठाकुर साहब (संजीव कुमार) ने अत्याचारी डाकू गब्बर सिंह को पछाड़ने के लिए भर्ती किया था। डाकू का किरदार नवोदित अमजद खान ने अपने करिश्मे से जीवंत कर दिया है।

बसंती (हेमा मालिनी) और खामोश, दुःखी राधा (जया भादुड़ी) ने कहानी को हल्कापन और दर्द भरा संयम दिया, जबकि आर.डी. बर्मन के संगीत ने हर लय को अविस्मरणीय मधुर शक्ति से रेखांकित किया।

यह फिल्म जब पहली बार रिलीज़ हुई तो ‘शोले’ को नकारात्मक, आलोचनात्मक समीक्षायें और व्यावसायिक प्रतिक्रिया मिली, लेकिन सकारात्मक मौखिक प्रचार ने इसे बॉक्स ऑफिस पर सफल होने में मदद की।

इसने देश भर के कई सिनेमाघरों में लगातार प्रदर्शन के रिकॉर्ड तोड़ दिये और मुंबई के मिनर्वा थिएटर में पांच साल से ज़्यादा समय तक चली। यह फ़िल्म पूर्व सोवियत संघ में भी बेहद सफल रही। यह उस समय की सबसे ज़्यादा कमाई करने वाली भारतीय फ़िल्म थी और ‘हम आपके हैं कौन..!’ (1994) तक भारत में सबसे ज़्यादा कमाई करने वाली फ़िल्म बनी रही थी। कई आंकड़ों के अनुसार शोले अब तक की सबसे ज़्यादा कमाई करने वाली भारतीय फ़िल्मों में से एक बनी हुई है।

ऐसे दौर में जब ‘स्ट्रीमिंग प्लेटफ़ॉर्म’ छोटे-छोटे और जल्द की भुला दिये जाने वाला ‘डिस्पोजेबल’ मनोरंजन पेश कर रहे हैं, ‘शोले’ धीमी गति से चलने वाली कहानी कहने की प्रभावशाली विधा की याद दिलाती है। इसका संतुलन के साथ आगे बढ़ना पात्रों को सांस लेने, विकसित होने और इसे दर्शकों की चेतना में अमिट छाप छोड़ने का मौका देता है।

इसके संवाद, ‘कितने आदमी थे?’ और ‘बसंती, इन कुत्तों के सामने मत नाचना’, सहजता से बोलचाल की भाषा में ढल गये, जबकि इसके आदर्श फिल्म निर्माताओं की पीढ़ियों के लिए कथात्मक सांचे बन गये।

‘शोले’ को अक्सर सर्वकालिक महानतम और सबसे प्रभावशाली भारतीय फिल्मों में से एक माना जाता है। ब्रिटिश फिल्म संस्थान द्वारा 2002 में सर्वकालिक ‘शीर्ष 10 भारतीय फिल्मों’ के सर्वेक्षण में इसे प्रथम स्थान मिला था। 2005 में 50वें फिल्मफेयर पुरस्कारों के निर्णायकों ने इसे 50 वर्षों की सर्वश्रेष्ठ फिल्म का खिताब दिया।

जनवरी 2014 में शोले को थ्रीडी प्रारूप में सिनेमाघरों में पुनः रिलीज़ किया गया। इस साल इटली के बोलोग्ना में एक स्क्रीनिंग के साथ इसके प्रदर्शन की यूरोप में शुरुआत हुई।

आगामी छह सितंबर को 1,800 सीटों वाले रॉय थॉमसन हॉल में 50वें टोरंटो अंतरराष्ट्रीय फिल्म महोत्सव (टीआईएफएफ) के दौरान इसका ‘उत्तरी अमेरिकी प्रीमियर’ होना तय है।

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