सीएम योगी के बयान के बाद कैराना में कशमकश में जाट

मुजफ्फरनगर। कैराना लोकसभा सीट पर उपचुनाव की रणभेरी बजने के बाद अब भाजपा और संयुक्त गठबंधन के बीच सियासी जंग की तस्वीर साफ हो गयी है। सपा और बसपा का प्रयोग गोरखपुर व फूलपुर में सफल होने पर इस उपचुनाव में भाजपा का सिरदर्द बढ़ा है, ये बात कैराना को लेकर जाट मतदाता भी कशमकश में है।

Update: 2018-05-27 13:13 GMT

मुजफ्फरनगर। कैराना लोकसभा सीट पर उपचुनाव की रणभेरी बजने के बाद अब भाजपा और संयुक्त गठबंधन के बीच सियासी जंग की तस्वीर साफ हो गयी है। सपा और बसपा का प्रयोग गोरखपुर व फूलपुर में सफल होने पर इस उपचुनाव में भाजपा का सिरदर्द बढ़ा है, ये बात कैराना को लेकर जाट मतदाता भी कशमकश में है। सपा भी इस सीट पर सियासी जंग के सहारे छोटे चैधरी के 'बड़े-बड़े' दावों की जमीनी हकीकत को परखने के मूड में है। यही कारण है कि बहुत कूटनीतिक तरीके से कैराना पर राजनीतिक फैसला लिया गया। इस एक चुनाव से यूपी में विधायकविहीन हो चुकी राष्ट्रीय लोकदल और पार्टी के मुखिया चै. अजित सिंह की प्रतिष्ठा भी दांव पर है। जबकि मृगांका सिंह के रूप में हुकुम सिंह की राजनीतिक विरासत की परीक्षा है।

साल 2014 के लोकसभा चुनाव के बाद से ही लगातार रालोद मुखिया चौधरी अजित सिंह अपने खिसक चुके परम्परागत वोट बैंक की 'घर वापसी' को लेकर प्रयासों में जुटे रहे। इस चुनाव में रालोद का परम्परागत मतदाता अपने 'छोटे चैधरी' को छोड़कर भारतीय जनता पार्टी के साथ लग गया था। यहीं हाल साल 2017 के उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनाव में हुआ। रालोद को भाजपा ने हाल में झटका दिया और पार्टी का एक मात्र छपरौली से विधायक भी भाजपा के खेमे में जा मिले। इससे रालोद यूपी में विधायकविहीन हो गयी। अब कैराना की सियासत से ही रालोद को संजीवनी मिलने की उम्मीद है। शुरूआत से ही कैराना पर रालोद अपनी दावेदारी जताता रहा। पहले इस सीट के लिए रालोद महासचिव जयंत चैधरी को प्रत्याशी बनाने की खबरें आयी, लेकिन चै. अजित सिंह लगातार महागठबंधन के प्रयास में जुटे रहे। कैराना लोकसभा सीट पर समाजवादी पार्टी अपना प्रत्याशी लड़ाना चाहती थी। इसके लिए सपा की ओर से दो नाम प्रमुखता से आगे चलते रहे, पहले शामली से सपा जिलाध्यक्ष किरणपाल कश्यप और दूसरा नाम पूर्व सांसद तबस्सुम बेगम, सपा ने ये तो साफ कर दिया था कि महागठबंधन में जयंत चैधरी को नहीं लड़ाया जा सकता है। ऐसे में बीच का रास्ता निकालने पर मंथन हुआ और इस मंथन से जो रास्ता निकला, उसे देखकर सियासी पंडित भी हैरान हो गये। सपा और रालोद गठबंधन में कैराना से सपा विधायक नाहिद हसन की मां पूर्व सांसद तबस्सुम हसन को प्रत्याशी बनाया गया। तबस्सुम को रालोद के टिकट पर चुनाव लड़ाना तय हुआ। इस पर बसपा प्रमुख मायावती की भी सहमति ली गयी। हालांकि बसपा खुलकर समर्थन में नहीं है, लेकिन मायावती ये साफ कर चुकी हैं कि गोरखपुर व फूलपुर की भांति कैराना या नूरपुर उपचुनाव में भी पार्टी प्रत्याशी खड़ा नहीं करेगी। कांग्रेस भी इस उपचुनाव में सपा के महागठबंधन का हिस्सा बनी है।

कैराना उपचुनाव सीधे तौर पर चौधरी अजित सिंह की अग्निपरीक्षा के रूप में देखा जा रहा है, सियासी पंडितों की माने तो महागठबंधन में सपा या बसपा रालोद के मुखिया को मिशन 2019 के लिए कोई भी बहाना बनाने का अवसर नहीं देना चाहती है। सपा नेत्री तबस्सुम हसन को रालोद के रास्ते इसलिए प्रत्याशी बनाया गया है, ताकि रालोद ये बहाना न बना पाये कि इस चुनाव में उसका प्रत्याशी नहीं था। कैराना पर इस चुनावी जंग में चौधरी अजित सिंह की प्रतिष्ठा जितनी दांव पर है, उतना ही कड़ा इम्तिहान जाटों का भी है। महागठबंधन में शामिल अन्य दलों के नेताओं ने रालोद के पाले में गेंद डालकर जाटों को पशोपेश में ला दिया है। कैराना पर जाट इस असमंजस में है कि वो छोटे चौधरी का वजूद बनाने के लिए वोट करे या फिर 2014 से बने माहौल पर ही मत दें। जाटों की सियासत की बात करें तो पश्चिमी उत्तर प्रदेश में जाट मतदाता हमेशा ही किसान मसीहा चौधरी चरण सिंह से प्रभावित रहा है और यही कारण है कि उनके पुत्र चै. अजित सिंह को हमेशा ही समाज ने सिर आंखों पर बैठाया। अजित सिंह के लिए महान किसान नेता और संघर्षशील व्यक्तित्व वाले स्व. चौधरी महेन्द्र सिंह टिकैत और उनके परिवार को जाट समाज ने एक किसान नेता के रूप में तो स्वीकार किया, लेकिन जब भी टिकैत परिवार राजनीतिक महत्वकांक्षा लेकर सियासी समर में कूदा, तब तब जाट समाज ने अजित सिंह को ही तरजीह दी। कभी भी जाटों ने टिकैत परिवार को राजनीतिक रूप से स्वीकार नहीं किया। बाबा टिकैत के पुत्र चौधरी राकेश टिकैत तब खतौली विधानसभा सीट वर्तमान में बुढ़ाना से चुनाव लड़े, इसके बाद उनके द्वारा अमरोहा सीट से चुनाव मैदान में उतरकर भाग्य आजमाया गया, लेकिन वो असफल रहे।

कैराना लोकसभा सीट के उपचुनाव में हुकुम सिंह और अख्तर हसन परिवार के बीच ही मुकाबला माना जा रहा है, लेकिन इन दोनों राजनीतिक परिवारों से ज्यादा प्रतिष्ठा जाट समाज के मतदाताओं की दांव पर लगी नजर आती है। पहले तो गठबंधन करने के बाद भी सपा व बसपा ने रालोद मुखिया चौधरी अजित सिंह को एसिड टेस्ट के लिए मजबूर कर दिया है। वहीं भाजपा ने भी गठबंधन के जाट मुस्लिम समीकरण का तोड़ निकालने के लिए पार्टी के जाट नेता पूर्व केन्द्रीय मंत्री व मुजफ्फरनगर से सांसद डाॅ. संजीव बालियान को कैराना उपचुनाव की जिम्मेदारी सौंपी है। अब ऐसे में जाट असमंजस में है कि वो अजित सिंह के खोये वजूद को संजीवनी देकर जीवित करने का काम करें या फिर भाजपा के प्रदेश उपाध्यक्ष संजीव बालियान को नये नेता के रूप में स्वीकार करें। कैराना उपचुनाव में यदि चै. अजित सिंह अपने परम्परागत वोट बैंक की 'घर वापसी' कराने में सफल रहते हैं तो रालोद के लिए मिशन 2019 में गठबंधन में मजबूत हिस्सेदारी की राह आसान हो जायेगी, लेकिन यदि यहां पर रालोद इस एसिड टेस्ट में विफल होता है तो मिशन 2019 के लिए महागठबंधन में हिस्सेदारी के लिए छोटे चौधरी की दावेदारी कमजोर हो सकती है।

कैराना उपचुनाव में प्रचार का शोर थम चुका है, अब फैसले की घड़ी आ चुकी है, 28 मई को कैराना उपचुनाव में नया सांसद चुनने के लिए चार साल में चौथी बार मतदाता अपना वोट डालने के लिए पोलिंग बूथों पर शिद्दत की गर्मी में कतारबद्ध नजर आयेगा। इससे पहले कई तरह का आत्ममंथन हो रहा है। शामली में पिछले दिनों भाजपा प्रत्याशी मृगांका सिंह के पक्ष में माहौल बनाने आये मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ का बयान, ''चौधरी अजित सिंह और जयंत चौधरी आज वोटों की भीख मांग रहे हैं, रालोद के वजूद पर कटाक्ष कर गया। सीएम के बयान के बाद जाट मतदाताओं का एक धड़ा बैचेन है, फैसला करने में सोच विचार हो रहा है। अब देखना है कि मुजफ्फरनगर दंगों के पांच साल बाद सपा के रास्ते बने महागठबंधन की सियासत क्या फिर से पश्चिमी उत्तर प्रदेश में जाट मुस्लिम समीकरण की सियासत को परवान चढ़ा पाती है, ऐसा हुआ तो भाजपा का मिशन 2019 कई चुनौतियों के भंवर में घिर सकता है। 

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