कुम्हारों की माटी आलीशान बंगलो के नीचे दबी

आलीशान बंगलों पर सजी चाइनीज लड़ियां बेशक लोगों के मन को लुभाती हों, लेकिन इन बंगलों के नीचे कुम्हारों की माटी दबी पड़ी है।

Update: 2020-11-13 09:36 GMT

प्रयागराज। फाफामऊ निवासी हरिया का कहना है कि आलीशान बंगलों पर सजी चाइनीज लड़ियां बेशक लोगों के मन को लुभाती हों, लेकिन इन बंगलों के नीचे भारतीय परंपरा को निभाते आ रहे कुम्हारों की माटी दबी पड़ी है।

ढाई से तीन हजार रुपए में चिकनी मिट्टी ट्राली खरीदकर दिए बनाकर कुम्हार मुनाफा नहीं कमा रहा, बल्कि अपनी संस्कृति, रीति- रिवाज को जीवंत रखने का प्रयास कर रहा है।

आज से 10-15 पंद्रह वर्ष पहले जहां कुम्हारों को आस- पास की जगह से ही दिए बनाने के लिए चिकनी मिट्टी आसानी से फ्री में उपलब्ध हो जाती थी, वहीं अब इस मिट्टी की मोटी कीमत चुकानी पड़ती है। वहीं इस मिट्टी से तैयार एक-दो रुपए के दीपक को खरीदते समय लोग मोल- भाव भी करना नहीं भूलते।

ररई का कहना है कि समय के साथ चिकनी मिट्टी के स्त्रोत एवं जगहों के समाप्त होने के साथ कुम्हारों को चिकनी मिट्टी मोल लेनी पड़ रही है।

15 साल पहले जहां 10 पैसे के दीपक में कुम्हार को अच्छी बचत हो जाती थी, वहीं आज एक दीपक 2 से 5 रुपए में बेचने पर भी कुम्हार रत्तीभर मुनाफा नहीं कमा पाता है। कुछ कुम्हारों को अच्छे आर्डर मिलने से सभी की दीवाली अच्छी नहीं मनती। पहले की तरह सभी कुम्हारों का कारोबार अच्छा होने से अच्छा माना जाता है।

उन्होने कहा कि दीपावली में रंग-बिरंगे चायनीज झालरों के बीच रोशनी के इस पर्व पर लोगो को मिट्टी के दीपक खरीदने चाहिए ताकि कुम्हारों की दीपावली और घर भी रोशन हो सके। पहले करवाचौथ एवं बाद में मिट्टी के दीपक बनाने का काम बड़े पैमाने पर चलता था। कुम्हारों को इस सीजन में पल भर के लिए बैठने की फुर्सत नहीं मिलती थी लेकिन बीते कुछ वर्षो में सस्ती चायनीज झालरों ने मिट्टी के दीपकों की जगह ले ली। इसके चलते लोग महज शगुन और पूजन के लिए मिट्टी के दीपक की खरीद करने लगे।

तेलियरगंज निवासी कहा कि दीवाली में पारंपरिक तौर पर सबसे ज्यादा इस्तेमाल होने वाले मिट्टी के दीए अब सिमट कर शगुन के तौर पर इस्तेमाल होने लगे हैं। पहले कुम्हारों को दीवाली जैसे त्योहारों का बेसब्री से इन्तजार रहता था। दीयों की मांग पूरी करने के लिए तैयारी महीनों पहले से तैयारी शुरू कर देते थे। लगातार बढ़ती मंहगाई और लोगों की बदली रुचि से अब तस्वीर बदल गई है। परम्परागत दियों की जगह अब आधुनिक लड़ियों ने भले ले ली है लेकिन असली दीवाली तो मिट्टी के दियो से मनाई जाती है।

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