मजरूह सुल्तानपुरी की हकीम से मशहूर नग़्मा-निगार बनने की दास्तान
मजरूह सुल्तानपुरी 1945 से 2000 यानी 55 साल तक लगातार गीत लिखते रहे और अपने जीवन में 362 फिल्मों में 2,318 गाने लिखे थे।
नयी दिल्ली । उत्तर प्रदेश के एक पुलिस कांस्टेबल के बेटे मजरूह सुल्तानपुरी ने अपना कैरियर एक हकीम के रूप में शुरू किया पर किस्मत ने उन्हें मशहूर गीतकार बना दिया और वह फ़िल्म जगत के सर्वोच्च दादा साहब फाल्के पुरस्कार से नवाजे गए।
पहली अक्टूबर 1919 को जन्में मजरूह की 101वीं जयंती के मौके पर फ़िल्म पत्रकार विजय अकेला ने "रहें न रहें हम महका करेंगे" शीर्षक से मजरूह पर लिखी एक पुस्तक में यह बात कही है। राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित इस पुस्तक के अनुसार मजरूह 1945 से 2000 यानी 55 साल तक लगातार गीत लिखते रहे और अपने जीवन में 362 फिल्मों में 2,318 गाने लिखे थे।
पुस्तक के अनुसार उत्तरप्रदेश के निजामाबाद में जन्मे मजरूह के पिता मोहम्मद हुसैन खान एक पुलिस कांस्टेबल थे और वह आजमगढ़ में तैनात थे । वहीं उन्होंने उर्दू, फारसी और अरबी की तालीम ली ।फिर इलाहाबाद विश्विद्यालय से अरबी की पढ़ाई की ताकि उन्हें स्कूल में टीचर की नौकरी मिल सके लेकिन आलिम तक पढ़कर पढ़ाई छोड़ दी फिर उन्होंने लखनऊ में चिकित्सा शास्त्र की पढ़ाई की ताकि हकीम बन सके। वे हकीम भी बने लेकिन उस जमाने के जाने माने शायर जिगर मुरादाबादी उन्हें एक मुशायरे में मुम्बई ले गए जहां उन्होंने यह शेर पढा
"शबे इंतिजार की कशमश में न पूछ कैसे सहर हुई
कभी इक चिराग बुझा दिया कभी इक चिराग जला दिया "
इस शेर ने उनकी किस्मत का दरवाजा खोला और जब ए आर केदार ने यह शेर सुना तो उन्होंने अपनी "शाहजहां" फ़िल्म में गीत लिखने का उन्हें प्रस्ताव दिया लेकिन मजरूह ने उसे ठुकरा दिया क्योंकि वे शायरी से पैसा कमाने के पक्ष में नहीं थे हालांकि जब उनके उस्ताद जिगर साहब ने समझाया तो उन्होंने शाहजहां फ़िल्म के लिए चार गाने लिखे। इस फ़िल्म में कुंदन लाल सहगल ने यह गाने गाये जो बहुत हिट हुए। इस फ़िल्म के गाने जब दिल ही टूट गया तो हम जी कर क्या करेंगे और गम दिए मुस्तक़िल बहुत लोकप्रिय हुआ। इस गीत से मजरूह भी मशहूर हो गए और फिर वे सदाबहार गीतकार बन गए