मानवाधिकारों के लिए भी याद आएंगे जस्टिस सच्चर
आज न्यायमूर्ति सच्चर हम सभी के बीच से चले गये। उनकी रिपोर्ट बहुत महत्वपूर्ण है जिसे ध्यान से पढ़ा जाना चाहिए और विभिन्न राजनीतिक दल उस रिपोर्ट पर वोट बैंक की राजनीति न करके देश और उनके सभी नागरिकों के विकास के लिए प्रयास करें। न्यायमूर्ति सच्चर को यही सबसे बेहतर श्रद्धांजलि होगी।
आज न्यायमूर्ति राजेंद्र सच्चर हम सभी के बीच से चले गये। उनकी रिपोर्ट बहुत महत्वपूर्ण है जिसे ध्यान से पढ़ा जाना चाहिए और विभिन्न राजनीतिक दल उस रिपोर्ट पर वोट बैंक की राजनीति न करके देश और उनके सभी नागरिकों के विकास के लिए प्रयास करें। न्यायमूर्ति सच्चर को यही सबसे बेहतर श्रद्धांजलि होगी।
इस नश्वर संसार में जो आया है उसे एक दिन यहां से प्रस्थान भी करना होगा लेकिन जो व्यक्ति अपने जीवित रहते ऐसे कार्य कर जाता है जो मानव समुदाय के लिए कल्याणकारी हों तो वह अपने उन्हीं कार्यों के चलते मरने के बाद भी जीवित रहता है। इसी तरह से कालजयी व्यक्तित्व बन गये दिल्ली हाईकोर्ट के पूर्व न्यायाधीश जस्टिस राजिंदर सच्चर। जस्टिस राजिन्दर सच्चर ने अपनी भरपूर उम्र जी है और 94 साल की अवस्था में उनका निधन हुआ। उन्होंने भारत के मुस्लिम समाज के बारे में कई महत्वपूर्ण सिफारिशें की हैं। उनके नेतृत्व में सच्चर आयोग का गठन किया गया था। भारत में मुसलमानों की स्थिति को समग्र रूप से समझने के लिए जस्टिस सच्चर कमेटी बनायी गयी थी। मानवाधिकारों को लेकर भी जस्टिस सच्चर ने काफी काम किया। इन कार्यों के चलते उन्हें हमेशा याद किया जाएगा।
जस्टिस सच्चर का जन्म 22 दिसम्बर 1923 को हुआ था। इस प्रकार उन्होंने ब्रिटिश शासन के अत्याचार और देश की आजादी के लिए संघर्ष को अच्छी तरह से देखा था। उन्होंने प्रारंभिक शिक्षा के बाद 1952 में वकालत से अपने सामाजिक जीवन की शुरुआत की और लगातार आगे बढ़ते गये। उन्हें 8 दिसम्बर 1960 में सुप्रीम कोर्ट में वकालत करने का अवसर मिला। उनकी ख्याति बढ़ी और 12 फरवरी 1970 को दो साल के लिए दिल्ली के अतिरिक्त जज हाईकोर्ट बनाये गये। इसके बाद 5 जुलाई 1972 को वे दिल्ली हाईकोर्ट के जज बने। दिल्ली हाईकोर्ट के अलावा जस्टिस सच्चर सिक्किम और राजस्थान हाईकोर्ट के कार्यवाहक चीफ जस्टिस भी रहे। भारत सरकार ने 9 मार्च 2005 को देश के मुसलमानों के तथाकथित सामाजिक, आर्थिक और शैक्षिक पिछड़ेपन से जुड़े मुद्दों की जांच के लिए एक उच्च स्तरीय कमेठी गठित की थी। इस कमेटी को मुसलमानों की आर्थिक गतिविधियों के भौगोलिक स्वरूप, उनकी सम्पत्ति और आमदनी का जरिया, शिक्षा एवं स्वास्थ्य सेवाओं का स्तर, बैंकों से मिलने वाली आर्थिक सहायता और सरकार द्वारा प्रदत्त अन्य सुविधाओं की जांच-पड़ताल के लिए कहा गया था। इसमें मुख्य दायित्व जस्टिस राजिन्दर सच्चर को सौंपा गया और यह कमेटी सच्चर कमेटी के नाम से जानी गयी। उस समय यूपीए सरकार के प्रधानमंत्री डा0 मनमोहन सिंह को जस्टिस सच्चर ने 403 पेज की रिपोर्ट सौंपी थी। इस रिपोर्ट को 2006 में लोकसभा में पेश किया गया था।
न्यायमूर्ति सच्चर ने मुसलमानों के आर्थिक, सामाजिक और शैक्षिक स्तर को लेकर सबसे महत्वपूर्ण सुझाव यह दिया था कि इस समाज के लोग अपने बच्चों को शिक्षा दिलाने में काफी पीछे हैं। इसकी वजह से उनकी सामाजिक स्थिति नहीं सुधरती। इस बात को पीछे छोड़कर सच्चर कमेटी की रिपोर्ट को राजनीतिक नफा-नुकसान की दृष्टि से पेश किया गया और इस पर आज तक राजनीति हो रही है। जस्टिस सच्चर ने कहा था कि देश में मुसलमानों की आवादी 13.4 फीसद है लेकिन सरकारी नौकरियों में उनका प्रतिनिधित्व सिर्फ 4.9 प्रतिशत है। इसमें भी ज्यादातर निचले पदों पर हैं। उच्च प्रशासनिक सेवाओं अर्थात आईएएस और पीसीएस व आईपीएस में मुसलमानों की भागीदारी सिर्फ 3.2 प्रतिशत है। रेलवे में 4.5 प्रतिशत मुस्लिम कर्मचारी हैं। रिपोर्ट में बताया गया था कि पश्चिम बंगाल, उत्तर प्रदेश और असम में जहां मुस्लिम आबादी क्रमशः 25.2 प्रतिशत, 18.5 प्रतिशत और 30.9 प्रतिशत है वहां सरकारी नौकरियों में इनकी भागीदारी क्रमशः 4.7 प्रतिशत, 7.5 प्रतिशत और 10.9 प्रतिशत है।
सबसे महत्वपूर्ण बात साक्षरता को लेकर कही गयी है और इसका सरकारी नौकरियों से भी सीधा संबंध है। रिपोर्ट में बताया गया कि मुसलमानों की साक्षरता देश की औसत साक्षरता से कम है। इसके लिए कमेटी ने मुस्लिम समुदाय को भी जिम्मेदार ठहराया जो अपने बच्चों को स्कूल भेजने की जगह छोटे-मोटे काम कराकर पैसा कमाने पर ज्यादा ध्यान देते हैं। सच्चर कमेठी ने कहा कि आश्चर्य यह कि केवल 3 से 4 फीसद मुस्लिम बच्चे ही मदरसों में पढ़ते हैं। मुस्लिम समुदाय को समझना होगा। हालांकि सच्चर कमेटी के लिए आरक्षण का नुस्खा भी सुझाया था लेकिन ज्यादा जोर मुस्लिम समाज के लोगों को अपने में बदलाव लाने पर था। अफसोस यह कि मुस्लिम वोट बैंक की राजनीति करने वाले मुलसमानों के लिए आरक्षण का मामला सबसे ज्यादा उछालते रहे हैं और इस पर आज भी राजनीति हो रही है।
न्याय मूर्ति सच्चर मानवाधिकार संगठन पीयूसीएल से भी जुड़े थे और मानवाधिकारों के हनन पर वे जमकर प्रहार करते रहे। उन्होंने कभी सत्ता के सामने सिर नहीं झुकाया। जस्टिस सच्चर को जब 1976 में राजस्थान हाईकोर्ट का जज बनाया गया और उनसे इस बारे में पूछा नहीं गया तो उन्होंने इसका विरोध किया था। यह दौर था श्रीमती इंदिरा गांधी की सरकार का और उन्होंने देश में आपातकाल लगा रखा था। इसके बाद ही जस्टिस सच्चर को दिल्ली हाईकोर्ट का मुख्य न्यायाधीश बनाया गया था जस्टिस सच्चर ने जब 30 नवम्बर 2006 को अपनी बहुचर्चित रिपोर्ट पेश की तो आजाद भारत में यह पहला मौका था जब देश के मुसलमानों की सामाजिक और आर्थिक स्थिति को लेकर किसी सरकारी कमेटी द्वारा तैयार रिपोर्ट संसद में पेश की गयी थी।
सच्चर कमेटी ने अपनी अनुशंसा में कहा था कि नेशनल डाटा बैंक (एनडीबी) को भी एक स्वतंत्र संस्था के रूप में काम करने की अनुमति दी जाए और केन्द्रीय सांख्यिकी आयोग एनडीवी को एक बड़ा फ्रेम वर्क उपलब्ध कराने में मदद कर सकता है। तत्कालीन यूपीए सरकार ने इस सिफारिश पर अमल नहीं किया और कार्यक्रम क्रियान्वयन मंत्रालय की बेवसाइट पर 97 सूचियां अपलोड करके अपने कर्तव्य की इतिश्री समझ ली। नेशनल डाटा बैंक के महत्व को समझाते हुए सच्चर कमेटी की रिपोर्ट में कहा गया है कि मतगणना और नेशनल सैम्पल सर्वे आर्गनाइजेशन बड़े पैमाने पर उच्च स्तर के आंकड़ों की उपलब्धता के महत्वपूर्ण स्रोत है लेकिन ये तीनों ही संस्थाएं जरूरत के डाटा उपलब्ध नहीं कराती हैं। इससे विभिन्न सामाजिक व धार्मिक तबकों की सामाजिक, आर्थिक व शैक्षिक स्थिति का सही अनुमान नहीं लगाया जा सकता। जस्टिस सच्चर का इशारा संभवतः गरीब हिन्दुओं की तरफ था जिन्हें सवर्ण समझ कर मान लिया गया कि इनकी सामाजिक, आर्थिक और शैक्षिक स्थिति बहुत अच्छी है।
आज न्यायमूर्ति सच्चर हम सभी के बीच से चले गये। उनकी रिपोर्ट बहुत महत्वपूर्ण है जिसे ध्यान से पढ़ा जाना चाहिए और विभिन्न राजनीतिक दल उस रिपोर्ट पर वोट बैंक की राजनीति न करके देश और उनके सभी नागरिकों के विकास के लिए प्रयास करें। न्यायमूर्ति सच्चर को यही सबसे बेहतर श्रद्धांजलि होगी। (अशोक त्रिपाठी-हिन्दुस्तान समाचार फीचर सेवा)