माया की अखिलेश को बाय-बाय, पिता की नसीहत को अब समझे अखिलेश

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हवलेश कुमार पटेल। लोकसभा चुनाव के परिणाम आने के बाद तमाम राजनैतिक पार्टियों का गहन मंथन आरम्भ होने के साथ ही गठबन्धन का भी नया अध्याय आरम्भ हो गया है। सबसे पहले बसपा सुप्रीमों ने समीक्षा बैठक में अपनी हार का ठीकरा चुनाव में सहयोगी पार्टी समाजवादी पार्टी के सिर पर फोड़ते हुए सपा से हुआ अपना गठबन्धन समाप्त करने का ऐलान कर दिया। हालांकि उन्होंने कहा कि सपा से उनके सम्बन्ध कायम रहेंगे। मायावती के ऐलान के बाद आजमगढ़ में अखिलेश यादव ने कहा कि सपा भविष्य में अपने दम पर चुनाव मैदान में उतरेगी। उत्तर प्रदेश के उप मुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य ने भी चुटकी लेते हुए कहा कि दो धोखेबाजों का गठबन्धन आखिर कब तक चलता।

लोकसभा चुनाव के परिणाम आने के बाद बहुजन समाज पार्टी की अध्यक्ष मायावती ने दिल्ली में आयोजित पार्टी की समीक्षा बैठक में कहा कि अखिलेश यादव सपा के परम्पराग वोटर्स को सहेजने में नाकामयाब रहे, जिस कारण जहां समाजवादी का प्रत्याशी चुनाव मैदान में नहीं था, वहां सपा का परम्परागत वोट गठबन्धन (बहुजन समाज पार्टी या राष्ट्रीय लोकदल) प्रत्याशी को नहीं पड़ा, बल्कि सपा के परम्परागत वोट बैंक (यादव व अन्य पिछड़ा वर्ग) भाजपा की झोली में चला गया। जिस कारण गठबन्धन प्रत्याशी को चुनाव में हार का मुंह देखना पडा है। तमाम कारणों को गिनाते हुए बसपा सुप्रीमों मायावती ने सपा से अपनी पार्टी का गठबन्धन तोड़ दिया। हालांकि उन्होंने कहा कि सपा से उनके सम्बन्ध बरकरार रहेंगे।

राजनीतिक जानकार मानते हैं कि अखिलेश यादव के अब तक के चुनावी सफर में उनकी राजनैतिक व सांगठनिक अनुभवहीनता ही उनकी जीत की राह में सबसे बड़ा रोड़ा साबित हुई है। हालांकि मुख्यमत्री के रूप में उनकी छवि विकास पुरूष के रूप में बनने लगी थी और अपने मुख्यमंत्रित्व के अन्तिम दो वर्षो में उन्होंने उत्तर प्रदेश में ताबड़तोड़ विकास कार्य कराये। उन विकास कार्यों को देखकर माना जाने लगा था कि अखिलेश यादव को अगर एक अवसर और मिला तो वे उत्तर प्रदेश की काया पलट कर रख देंगे, लेकिन विधान सभा चुनाव से ऐन पहले उनकी परिवारिक कलह ने सपा के परम्परागत वोटर्स को नहीं, बल्कि पार्टी पदाधिकारियों व कार्यकर्ताओं को भी असमंजस मंे डाल दिया था और वह असमंजस चुनाव के बाद तक भी बरकरार रहा था। इसका सबसे बड़ा उदाहरण खुद मुलायम सिंह यादव का वर्षों से अज्ञातवास झेल रही लोकदल से अपने प्रत्याशियों की घोषणा करते हुए सपा के परम्परागत वोटर्स से अपील करनी पडी कि वे लोकदल प्रत्याशियों को वोट देकर विजयी बनायें। इसके साथ ही अखिलेश यादव का अपने चाचा और संगठन के बारे में महारत हासिल रखने वाले शिवपाल सिंह यादव को किनारे लगाना उनकी पराजय का सबसे बडा कारण बना था। इसके साथ अखिलेश के खेवनहार बने उनके चाचा प्रोफेसर रामगोपाल यादव को गद्दी की राजनीति करने वाले के रूप में कुख्यात् है। माना जाता है कि रामगोपाल यादव को जमीनी हकीकत का तनिक भी ज्ञान नहीं है और न ही उनका संगठन के बारे में कोई उल्लेखनीय अनुभव ही है। अब तक चुनावी सफर में सपा की हार की समीक्षा में यह बात स्पष्ट तौर पर उजागर हुई है कि भले सपा प्रमुख अखिलेश यादव नौजवानों की पहली पसंद बने हों, लेकिन अनुभवहीनता और संगठन पर कमजोर पकड़ चुनाव दर चुनाव सपा की हार का कारण बन रही है।

वर्ष 2017 मे हुए विधानसभा चुनाव की बात करें तो उस वक्त किनारे लगाने के बावजूद अखिलेश के पिता व सपा के पूर्व प्रमुख मुलायम सिंह यादव ने सपा-कांग्रेस गठबन्धन का विरोध करते हुए स्पष्ट कहा था कि उनकी राजनीति की मुख्य धुरी कांग्रेस विरोध पर ही टिकी हुई है। ऐसे में सपा का कांग्रेस से गठबन्धन करना पार्टी के सिद्धान्तों को तिलांजलि देना है। उन्होंने इस मुद्दे पर खुले मंच से अखिलेश को फटकार भी लगायी थी कि इस तरह से सपा का परम्परागत वोट उनसे कट जायेगा। मुलायम की वह बात चुनाव परिणाम आने के बाद सच साबित हुई, लेकिन अखिलेश यादव ने पिता की नसीहत को हालिया लोकसभा चुनाव में भी दरकिनार करते हुए मुलायम की चेतावनी को अनदेखा करते हुए बसपा से गठबन्धन कर लिया और नतीजा हार के रूप में अखिलेश के सामने आया है।

राजनीतिक जानकारों की मानें तो अखिलेश को अगर कामयाब होना है तो उन्हें भविष्य में गठबन्धन की राजनीति से खुद को अलग रखते हुए अपने पुराने और अनुभवी वरिष्ठ लोगों की शरण में जाना पडेगा।

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