आज ही के दिन 1856 को भारत में मिली थी विधवा पुनर्विवाह को मंजूरी

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आज ही के दिन 163 साल पहले 1856 को भारत में विधवा पुनर्विवाह को कानूनी मान्यता मिली थी। विधवाओं की स्थिति में सुधार हेतु प्राथमिक प्रयास राजा राममोहन राय की ओर से ही हुआ था। उन्होंने समाजोन्नति विधायिनी सुहृद् समिति की स्थापना की थी जिसका उद्देश्य ब्रिटिश सरकार को विधवा पुनर्विवाह पर कानूनी रोक हटाने के लिए याचिका देना था। अंग्रेज सरकार से इसे लागू करवाने में समाजसेवी ईश्वरचंद विद्यासागर का बड़ा योगदान था। उन्होंने अक्षय कुमार दत्ता के सहयोग से विधवा विवाह को हिंदू समाज में स्थान दिलवाने का काम शुरू किया। इतना ही नहीं विद्यासागर ने अपने बेटे का विवाह भी एक विधवा से ही किया था। इस अधिनियम से पहले हिंदू समाज में उच्च जाति की विधवा महिलाओं को विधवा होने के बाद दोबारा शादी की इजाजत नहीं थी। 16 जुलाई 1856 का दिन विधवाओं के लिए समाज में फिर से स्थापित होने का अवसर लेकर आया था।

बता दें कि 19 वीं शताब्दी में सामाजिक सुधार आन्दोलन ने मानवीय सम्बन्धों एवं मौजूदा वास्तविकताओं को कई प्रकार से प्रभावित किया। इसमें सर्वाधिक महत्वपूर्ण लैंगिक सम्बन्ध और समाज में विधवाओं की स्थिति थी। उन्नीसवीं शताब्दी के तीसरे दशक में भारतीय उपमहाद्वीप के विभिन्न हिस्सों से प्रकाशित पत्र-पत्रिकाओं में विधवा पुनर्विवाह के समर्थन में लेख छपने लगे थे। राममोहन राय ने वर्ष 1822 में द मॉडर्न इन्क्रोचमेंट ऑन द एन्सिस्ट राइट्स ऑफ फीमेल्स एकॉर्डिंग टू द हिन्दू लॉ ऑफ इनहेरिटेन्स नामक निबंध लिखकर विधवाओं के दुःखों की ओर लोगां का ध्यान खिंचा था। संवाद कौमुदी ने हिन्दू विधवाओं की स्थिति में सुधार लाने के लिए चंदा देने की अपील की थी। 4 मार्च 1835 को कलकŸाा के कुलीन परिवार की विधवाओं ने समाचार दर्पण के सम्पादक से अपील की थी कि वे उनकी दुःखद दशा के बारे में उनकी कुछ पंक्तियों को अपनी पत्रिका में प्रकाशित करें। इसी तरह चिन्सुरा की कुछ महिलाओं ने सम्पादक के नाम पत्र लिखे और सरकार के समक्ष कुछ मॉँगे रखी थी। ज्ञानन विषयन पत्रिका की अपील पर मोतीलाल शील, बाबू हलधर मल्लिक और अन्य बुद्विजीवियों के प्रयत्नों से 1837 ई0 में कलकŸा में एक विशाल सभा का आयोजन हुआ। रत्नागिरी के एक तेलुगु ब्राह्यण ने 1837 ई0 में विधवा पुनर्विवाह के सम्बन्ध में एक पर्चा लिखा था, जिसका प्रकाशन मुम्बई से हुआ था। मुम्बई दर्पण ने इसके पक्ष-विपक्ष में कई आलोचनाएॅँ भी छापी थी।

बंगाल में ईश्वरचन्द्र विद्यासागर द्वारा विधवा विवाह प्रारम्भ करने के 10 वर्ष पूर्व बहुबाजार के बाबू नीलकमल बंद्योपाध्याय ने कुछ अन्य प्रबुद्व जनों के साथ मिलकर विधवा पुनर्विवाह कराने की असफल चेष्टा की। ईश्वरचन्द्र विद्यासागर ने एक सुनियोजित योजना के अनुरूप विधवाओं के प्रति कठोरता को एक खतरनाक बीमारी बताते हुए विधवाविवाह के पक्ष में धर्मग्रंथों में लिखित उद्धरणों को 1854 ई0 में एक लधु पुस्तिका 'ए प्रपोजल एज टू व्हेदर विडो रिमैरिज शुड बी इंट्रोड्यूस्ड और नॉट?' के रूप में जनता के सामने रखा था। विधवा पुनर्विवाह आन्दोलन को मजबूती प्रदान करने के लिए विद्यासागर ने दो पुस्तिकाओं की रचना की थी, इन दोनो को मिलाकर 1856 ई0 में एक पुस्तक की शक्ल दी गई जिसका शीर्षक था मैरिज ऑफ हिन्दू विडोज। इसके पश्चात् विद्यासागर ने अपनी पुस्तिका का अंग्रेजी अनुवाद कर अंग्रेज अधिकारियों को सौप दिया। उनकी सलाह पर ही विद्यासागर ने 1855 ई0 में भारत के गवर्नर जनरल को विधवा पुनर्विवाह पर कानून बनाने के लिए एक याचिका दी। उसी वर्ष विद्यासागर की याचिका पर आधारित एक कानून का मसौदा विधान परिषद् में जे0 पी0 ग्रांट द्वारा प्रस्तुत की गई और सरकार ने 16 जुलाई 1856 को हिन्दू विधवाओं के लिए हिन्दू विधवा पुनर्विवाह कानून-1856, 15 वें अधिनियम के रूप में पारित कर वैधानिक समाजसुधार का एक उत्कृष्ट उदाहरण प्रस्तुत किया। हिन्दू पैट्रियाट के अनुसार 1867 में विद्यासागर ने ऐसे 60 विधवा विवाह अपने खर्चे से सम्पन्न कराये।

मुम्बई में विष्णु शास्त्री ने 1866 ई0 में विडो मैरेज एसोसियेशन की स्थापना की थी। हिन्दू सम्प्रदाय के कई दलों ने क्रिश्चियन मिशनों के आदर्श पर विधवाश्रमों की स्थापना करने का प्रयत्न किया। पहला विधवाश्रम ब्रह्मसमाजी शशिपद् बनर्जी के द्वारा कलकता के निकट बारानगर में स्थापित किया गया था।

हिंदू विधवा पुनर्विवाह अधिनियम 1856 से पूर्व की विवाह परंपरा थी उसमें किसी औरत के पति की मृत्यु हो जाने पर उसे उसकी चिता के साथ जलना होता था या सर मुंडवाना होता था, लेकिन इस अधिनियम के अनुसार यदि किसी स्त्री के पति की मृत्यु हो जाती है तो वह पुनर्विवाह कर सकती है। इस विवाह में उसके सगे संबंधी अर्थात माता पिता भाई दादा नाना नानी आदि संबंधियों के द्वारा बात करके दूसरे विवाह को मंजूरी दी जा सकती है। विवाह में उनकी सहमति का होना अत्यंत आवश्यक है, जिस घर कि वह पहले बहु थी। हिंदू विधवा पुनर्विवाह अधिनियम 1856 के अनुसार पुर्नविवाह के बाद मृत्यु वाले पति का घर उस पर उसका कोई संपत्ति के तौर पर अधिकार नहीं होगा, बल्कि जहां वह पुनर्विवाह के बाद जाएगी वहां उसका अधिकार माना जाएगा।

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