आज ही के दिन 1839 में महाराजा रणजीत सिंह ने ली थी अन्तिम सांस

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इतिहास इस बात का साक्षी है कि 188 साल पहले सिखों ने महाराज रंजीत सिंह के नेतृत्व में बालाकोट में पहली सर्जिकल स्ट्राइक की थी और 300 जेहादियों को मार गिराया था। फिर से बालाकोट में भारतीय वायुसेना ने एयर स्ट्राइक कर 300 आतंकियों को मार गिराने का दावा किया है। 188 साल पहले भी कश्मीर पर कब्जे की मंशा से सैयद अहमद बरेलवी के नेतृत्व में मुजाहिद एकत्र हुए थे। उस समय भी सभी मुजाहिद मारे गये थे। इतिहास के पन्नों में दर्ज है कि 1831 में बालाकोट में महाराजा रणजीत सिंह के सिख लड़ाकों ने सैय्यद अहमद बरेलवी समेत 300 से ज्यादा मुजाहिदीन मार गिराए थे। सिखों के इस हमले में शाह इस्माइल शहीद भी मारा गया था, जो इस्लामी विद्वान था और अपने समय के बड़े इस्लामी विद्वान शाह वली उल्लाह का पोता था।

शेर-ए पंजाब के नाम से प्रसिद्ध महाराजा रणजीत सिंह एक ऐसी सख्शियत थे, जिन्होंने न केवल पंजाब को एक सशक्त सूबे के रूप में एकजुट रखा, बल्कि अपने जीते-जी अंग्रेजों को अपने साम्राज्य के पास भी नहीं भटकने दिया। भारतीय इतिहास में अपनी जगह बनाने वाले प्रचंड पराक्रमी महाराजा रणजीत सिंह 58 साल की उम्र में सन 27 जून 1839 में मृत्यु को प्राप्त हुए। उन्होने अंतिम साँसे लाहौर में ली थी। सदियों बाद भी आज उन्हे अपने साहस और पराक्रम के लिए याद किया जाता है। सब से पहली सिख खालसा सेना संगठित करने का श्रेय भी महाराजा रणजीत सिंह को जाता है। उनकी मृत्यु के पश्चात उनके पुत्र महराजा खड़क सिंह ने उनकी गद्द्दी संभाली। रणजीत सिंह का जन्म सन 1780 में वर्तमान में गुजरांवाला के संधावालिया जाट महाराजा महां सिंह के पुत्र के रूप में हुआ था। रणजीत के पिता महा सिंह सुकरचकिया मिसल के कमांडर थे। छोटी सी उम्र में चेचक की वजह से महाराजा रणजीत सिंह की एक आंख की रोशनी जाती रही। 12 अप्रैल 1801 को रणजीत ने महाराजा की उपाधि ग्रहण की। गुरु नानक के एक वंशज ने उनकी ताजपोशी संपन्न कराई थी। उन्होंने लाहौर को अपनी राजधानी बनाया था।

महाराजा रणजीत ने अफगानों के खिलाफ कई लड़ाइयां लड़ीं और उन्हें पश्चिमी पंजाब की ओर खदेड़ दिया था। यह पहला मौका था जब पश्तूनों पर किसी गैर मुस्लिम ने राज किया। पहली आधुनिक भारतीय सेना-सिख खालसा सेना गठित करने का श्रेय भी उन्हीं को जाता है। बिना किसी के नियमित प्रशिक्षण या संगठन महाराजा ने एशिया की एकमात्र आधुनिक सेना का विकास किया था। 1880 के दशक में जापानी पुनर्गठन, जो कि सतलुज में ब्रिटिश अग्रिम रोकने में सक्षम था। उनके सैनिकों को जिसने एक साथ बाँध कर रखा, वह उनके नेता के प्रति उनकी निजी वफादारी थी।

महाराजा रणजीत खुद अनपढ़ थे, लेकिन उन्होंने अपने राज्य में शिक्षा और कला को बहुत प्रोत्साहन दिया। उन्होंने हिंदुओं और सिखों से वसूले जाने वाले जजिया पर भी रोक लगाई। कभी भी किसी को सिख धर्म अपनाने के लिए विवश नहीं किया। उन्होंने अमृतसर के हरिमन्दिर साहिब गुरूद्वारे में संगमरमर लगवाया और सोना मढ़वाया, तभी से उसे स्वर्ण मंदिर कहा जाने लगा। बेशकीमती हीरा कोहिनूर महाराजा रणजीत सिंह के खजाने की रौनक था। सन 1839 में महाराजा रणजीत का निधन हो गया। उनकी समाधि लाहौर में बनवाई गई, जो आज भी वहां कायम है। उनकी मौत के साथ ही अंग्रेजों का पंजाब पर शिकंजा कसना शुरू हो गया। अंग्रेज-सिख युद्ध के बाद 30 मार्च 1849 में पंजाब ब्रिटिश साम्राज्य का अंग बना लिया गया। इसी समय में अंग्रेजो नें सिखों से कोहिनूर हीरा लूट लिया, और साथ-साथ कश्मीर राज्य और हजारा राज्य भी छीन लिया। कोहिनूर हीरा लंदन ले जया गया और वहाँ ब्रिटेन की रानी विक्टोरिया के ताज में जड्वा दिया गया। ऐसा कहा जाता है की कोहिनूर हीरे को ब्रिटेन की महारानी के ताज में लगाने से पहले जौहरियों नें एक माह और आठ दिन तक तराशा था।

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