यूपी में भी मिल सकेगी अब अग्रिम जमानत

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लखनऊ। अग्रिम जमानत व्यक्ति को गिरफ्तार करने से पहले जारी की गई जमानत पर एक व्यक्ति को रिहा करने की दिशा में उठाया गया कदम है। राष्ट्रपति की मंजूरी के बाद अब उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड में अग्रिम जमानत का प्रावधान देने वाला बिल को दोबारा लागू किया जा सकेगा। उत्तर प्रदेश सरकार ने इससे सम्बन्धित अधिसूचना जारी कर दी है। इस बिल के तहत उत्तर प्रदेश के सीआरपीसी की धारा 438 के तहत संशोधन किया जाएगा। बता दें कि उत्तर प्रदेश और उतराखंड को छोड़ कर देश के अन्य सभी राज्यों में अग्रिम जमानत का प्रावधान है। अब यहां भी इसे चार दशकों बाद इस कानून को दोबारा लागू करने की प्रक्रिया पर काम किया जा सकेगा।



जानकारों के अनुसार अग्रिम जमानत की अवधारणा उस स्थान पर आती है जब अभियुक्त को संज्ञेय अपराधों के मामलों में गिरफ्तारी का भय हो। जमानत एक कानूनी राहत है जो किसी व्यक्ति को तब तक अस्थायी स्वतंत्रता प्राप्त करने का हक प्रदान करती है जब तक उसका मामला निपट नहीं जाता। आरोपों की गंभीरता के आधार पर, एक व्यक्ति पूरी तरह से गिरफ्तारी से बचने में सक्षम हो सकता है। हालांकि, कुछ मामलों में गिरफ्तारी की जाती है और आरोपी को जमानत के प्रावधानों के मुताबिक मुक्त किया जाता है जैसा कि आपराधिक प्रक्रिया संहिता के तहत दिया गया है। यह अधिनियम आपराधिक मामलों में, विशेष रूप से दहेज से संबंधित, अग्रिम जमानत कई अभियुक्तों को राहत देता है।

प्रमुख सचिव गृह अरविंद कुमार की मानें तो राष्ट्रपति ने सीआरपीसी की धारा 438 (अग्रिम जमानत) फिर से लागू करने के विधेयक को एक जून 2019 को मंजूरी दे दी थी। इसके बाद अधिसूचना की गई है। संशोधित कानून के मुताबिक अग्रिम जमानत की सुनवाई के दौरान आरोपी के मौजूद रहने की अनिवार्यता खत्म हो जाएगी। नये कानून के तहत कोर्ट के पास अग्रिम जमानत देने के लिए कुछ अनिवार्य शर्तें रखने का अधिकार होगा। गंभीर अपराधों में अदालत चाहे तो अग्रिम जमानत देने से इनकार भी कर सकती है। एससीएसटी एक्ट समेत उन मामलों में भी अग्रिम जमानत नहीं मिलेगी, जिनमें सजा फांसी की सजा का प्रावधान हो। साथ ही आतंकी गतिविधियों से जुड़े मामलों (अनलॉफुल एक्टिविटी एक्ट 1967), आफिशियल एक्ट, नारकोटिक्स एक्ट, गैंगस्टर एक्ट से जुड़े मुकदमों में भी अग्रिम जमानत नहीं मिल सकेगी। शर्तों में शामिल है कि आरोपी को जब कभी पुलिस पूछताछ के लिए बुलाएगी, तो उसे पेश होना होगा। आरोपी मामले में शामिल किसी भी व्यक्ति को प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से डरा-धमका नहीं सकता और आरोपी अदालत की इजाजत के बिना देश नहीं छोड़ सकता। एक अन्य संशोधन के अनुसार अदालत को 30 दिनों के भीतर अग्रिम जमानत पर दिए गए आवेदन पर फैसला देना होगा।

बता दें कि साल 2009 में भी राज्य विधि आयोग ने संशोधित बिल को दोबारा लागू करने की सिफारिश की थी। 2010 में मायावती सरकार ने बिल पास कर इसे केंद्र के अनुमोदन के लिए भेजा था, लेकिन उस समय मामला ठंडे बस्ते में चला गया था। केंद्र कुछ बदलावों की जरूरत महसूस करते हुए इसे वापिस कर दिया था। नये विधेयक को मंजूरी दिए जाने से पहले यूपी की योगी आदित्यनाथ सरकार ने पूर्व की खामियों एवं अन्य राज्यों में प्रावधान के प्रयोग पर अध्ययन करने के लिए गृह सचिव कह अध्यक्षता में एक समिति गठित की थी, जिसमें महानिदेशक (अभियोजन) और कानून विभाग के अधिकारी भी शामिल थे।

ज्ञात हो कि वर्ष 1976 में आपातकाल के दौरान सेशन कोर्ट में अग्रिम जमानत की व्यवस्था खत्म कर दी थी। बाद में यूपी और उत्तराखंड को छोड़ बाकी प्रदेशों में यह व्यवस्था शुरू हो गई थी, तभी से हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट की तरफ से इसे पुर्नस्थापित करने के निर्देश मिल रहे थे। अग्रिम जमानत की व्यवस्था न होने के कारण हाई कोर्ट पर काफी दबाव पड़ रहा था, क्योंकि लोग संज्ञेय अपराधों में अरेस्ट स्टे के लिए कोर्ट में याचिकाएं कर रहे थे।



विधि विशेषज्ञों के अनुसार विधेयक के तहत अग्रिम जमानत के लिए जो भी आवेदन आएंगे उनका आने की तिथि से 30 दिन के अंदर निस्तारण करना होगा। कोर्ट को अंतिम सुनवाई से सात दिन पहले लोक अभियोजक को नोटिस भेजना भी अनिवार्य होगा। अग्रिम जमानत से जुड़े मामलों में कोर्ट अभियोग की प्रकृति और गंभीरता, आवेदक के इतिहास, उसकी न्याय से भागने की प्रवृत्ति और आवेदक को अपमानित करने के उद्देश्य से लगाए गए आरोप पर विचार कर उसके आधार पर फैसला ले सकती है

भारतीय आपराधिक कानून के तहत, आपराधिक प्रक्रिया संहिता की धारा 438 के तहत अग्रिम जमानत का प्रावधान है। 41 वीं रिपोर्ट में भारत के कानून आयोग ने प्रक्रिया संहिता में इस प्रावधान को शामिल करने की सिफारिश की। यह प्रावधान किसी व्यक्ति को गैर-जमानती अपराध करने के आरोप में गिरफ्तारी की प्रत्याशा में जमानत मांगने की अनुमति देता है।

किसी व्यक्ति के खिलाफ अग्रिम जमानत के लिए आवेदन करने के लिए एफआईआर की कोई आवश्यकता नहीं है। जब कोई व्यक्ति अपनी गिरफ्तारी के लिए उचित आधार की अपेक्षा करता है, तो वह एफआईआर दर्ज करने से पहले भी अग्रिम जमानत के लिए आवेदन कर पाएगा। किसी व्यक्ति को एफआईआर दर्ज करने के बाद भी अग्रिम जमानत के लिए आवेदन करने का अधिकार है, लेकिन गिरफ्तारी से पहले। एक बार जब व्यक्ति को गिरफ्तार कर लिया जाता है, तो मामला नियमित रूप से जमानत या अंतरिम जमानत के लिए आवेदन लेना अनिवार्य है। अग्रिम जमानत के लिए कोई व्यक्ति तब आवेदन करता है जब उसे लगता हो कि उसे किसी निश्चित आपराधिक अपराध के लिए कुछ दिनों में गिरफ्तार किया जा सकता है। अग्रिम जमानत दाखिल करने पर, विपक्षी दल को जमानत आवेदन के बारे में अधिसूचित किया जाता है और विपक्षी अदालत में जमानत आवेदन के खिलाफ लड़ सकता है। इसमें आवेदक को विशेष तथ्यों और घटनाओं का खुलासा करके न्यायालय को विश्वास दिलाना होता है, कि उनके पास विश्वास करने का कारण है कि उन्हें गैरजमानती अपराध के लिए गिरफ्तार किया जा सकता है।

जनपद न्यायालय में प्रैक्टिस कर रहे वरिष्ठ अधिवक्ता प्रमोद सैनी की मानें तो यह सरकार का बहुत अच्छा कदम है। उन्होंने बताया कि जो लोग शातिरों की चाल का शिकार होकर कानूनी खामियों का शिकार हो जाते थे। धारा 438 उन परेशान लोगों के लिए राहत भरा है। एक प्रश्न के जवाब में एडवोकेट प्रमोद कुमार सैनी ने कहा कि हालांकि शातिर अपराधी भी 380 का लाभ उठाकर को बचने का प्रयास करेंगे, लेकिन अदालत इसे रोकने में सक्षम है।

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